शारीरिक अपंगता से ज्यादा खतरनाक है वैचारिक अपंगता

दशकों पुराने आबिद सुरती के एक कार्टून में, एक पिता अपने बेटे की जबरदस्त धुनाई करते दिखता है। पड़ोसी के पूछने पर बताते हैं, ‘‘कल इसका रिजल्ट आने वाला है और तब तक मैं इंतजार नहीं कर सकता”।

घंटी बजाने पर दरवाजा तुरंत न खुलना, रेस्तरां में ऑर्डर की आइटमें प्रस्तुत होने में देरी, झट से उत्तर न मिलना, हॉर्न देने पर धीमे चलते वाहन द्वारा मार्ग न छोड़ना जैसी स्थितियों में आपा खो कर लड़़ने लगना अधकचरी सोच का लक्षण है। स्वस्थ वृत्ति का तकाजा है, उन संभावनाओं की अनदेखी न हो जिनके कारण सामने वाला हमारे अनुकूल आचरण नहीं कर रहा; नामालूम वह विक्षिप्त, दुविधाग्रस्त या संताप में हो। हम मान लेते हैं, वह जानबूझ कर हमारी नहीं सुन रहा। किसी को समझने से पहले उसे समझाने, परखने या उसके बारे में राय बनाने का अर्थ है हमें अपनी सोच दुरस्त करनी चाहिए। किसी के बाबत आपकी राय अधिक सटीक तब होगी जब बरसों-बरसों विभिन्न अवसरों में उसे देखते, बरतते रहे हैं।

किन्हीं कारणों से सभी समुदायों में धैर्य और सहिष्णुता के स्तर में गिरते गिरते वैश्विक चुनौती बन चुकी है। तनाव, उद्विग्नता, और अवसाद जैसी मानसिक व्याधियों में अनवरत बढ़त हो रही है। मानसिक रोगों का इलाज लेने वालों से कहीं गुना वे बेचारें हैं जिन्हें अनुमान ही नहीं कि वे मानसिक विकृति या व्याधि से ग्रस्त हैं। वैचारिक उन्नति और ठीकठाक जीने के संदर्भ में अनजान होना उतना जोखिमभरा नहीं जितना अपनी बेहतरी इच्छा न होना।

शरीर में तो बहुत कुछ करने में सामर्थ्य है, यह मस्तिष्क को समझाना होता है। स्वस्थ काया के बावजूद अनेक जन सदा इस भ्रम में जीते हैं कि उसके अंग-प्रत्यंग फलां कार्य कर ही सकते, ऐसे व्यक्ति वैचारिक अपंगता के शिकार हैं। जब आप जैसा एक व्यक्ति अमुक कर सकता है यह कैसे संभव है कि आप नहीं कर सकते, गड़बड़ सोच में है। विचार से सुदृढ़ व्यक्ति जानता है कि प्रभु का प्रतिरूप होने के कारण वह अथाह ऊर्जा से परिपूर्ण है जिसके समुचित दोहन से आश्चर्यजनक, विश्वसनीय कार्य संपादित किए जा सकते हैं।

जब दो व्यक्तियों में से एक कहता है, मैं फलां कार्य कर सकता हूं और दूसरा कहता है, मैं नहीं कर सकता तो दोनों सही होते हैं। वैचारिक रूप से संपन्न व्यक्ति हौसलों से सराबोर होगा, मुंह लटकाया नहीं। वह जानता है कि कोई पराजित तभी होता है जब पराजय को अंतिम सत्य मान लिया जाए। समूचा खेल शारीरिक बल से अधिक मन को उत्साही और पॉज़िटिव मुद्रा में ढ़ाले रखने का है। वोल्टेयर ने कहा, ‘‘प्रतिदिन ग्राही, प्रसन्न मुद्रा में रहने का निर्णय अहम और अत्यंत साहसपूर्ण होता है’’।

अपने हित न जानने वाला वैचारिक रूप से पंगु हैं, उसकी स्थिति शारीरिक अपंगों से अधिक शोचनीय है। विचार से सक्षम व्यक्ति असफल होने से नहीं, प्रयत्न न करने से डरेगा; वह दूसरों को परख-परख कर एकाकी पड़ जाने के बजाए उन्हें समझने की चेष्टा करेगा, इस प्रक्रिया में अन्यों से उसके अच्छे, सौहार्दपूर्ण हो जाएंगे।

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यह आलेख संक्षिप्त रूप में 9 सितंबर 2021 बृहस्पतिवार के दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर ऊर्जा कॉलम में प्रकाशित हुआ। लिंक: https://m.jagran.com/spiritual/religion-immature-thinking-decline-in-patience-and-tolerance-has-become-global-challenge-22004308.html

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