शारीरिक कलाकारियों से ऊपर हैं योग के मायने

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भारतीय उद्गम के योग का लोहा दुनिया मान गई है। क्या हम अभी भी नहीं चेतेंगे?

चीनी दार्शनिक लाओत्जे से पूछा गया, आपके सुखी जीवन का राज क्या है। जवाब मिला, ‘‘जब भूख लगती है तो खा लेता हूं, नींद आती है तो सो जाता हूं।’’ जिज्ञासु पहले हकबक था, फिर तपाक से बोला, ‘‘यह तो सारी दुनिया करती है।’’ कहते हैं लाओत्जे ने प्रतिक्रिया स्वरूप जोर का ठहाका लगाया।

योग क्या है?

लाओत्जे के ठहाके में मनुष्य द्वारा ओढ़ी जातीं तमाम औपचारिकताओं, मुखौटों, लबादों, शिष्टताओं और आडंबरी व्यवहार पर करारा व्यंग्य था जिन्हें ओढ़ कर वह सहज जिंदगी जीने लायक नहीं रहता, जिनमें ढ़ल कर वह अपने शरीर, मन और चित्त को विकृत-दूषित कर देता है, उसका आचरण और व्यवहार बनावटी हो जाता है, प्रकृति की अपेक्षाओं के उलट। लाओत्जे के ठहाके का संदेश था कि मन, चित्त और शरीर को सहज गति से चलने दिया जाए। यही योग का परम लक्ष्य भी है। हालांकि योग के वृहत्तर अनुभव और संपूर्ण लाभ उच्च कोटि के साधकों के लिए सुरक्षित हैं, किंतु सामान्य जनों को भी इसके जबरदस्त फायदे मिलते हैं। योग विज्ञान के तौरतरीकों के निरंतर अभ्यास से मनुष्य को वह मिल जाता है जो उसे स्वस्थ, सुखी रहने और आदमी बने रहने के लिए चाहिए। इसीलिए विश्व के सभी समुदायों, धर्मों, पंथों में योगासनों, और इसके अग्रणी स्वरूप ‘‘ध्यान’’ को रोजमर्रा की चर्या में शुमार करने की संस्तुति है।

उच्च कैलोरीयुक्त भोजन, नगण्य या शून्य शारीरिक व्यायाम, पैक किया आहार, निम्न गुणवत्ता का तथा अनियमित खानपान, जरा सी दूरी के लिए वाहन, रुटीन घरेलू कार्यों के लिए नौकरानी पर निर्भरता वाली जीवनशैली अनेक व्याधियों की जड़ है। सोच भी कम या बगैर मेहनत ढ़ेर, जल्द हासिल करने की है। नतीजन हृदय रोग, हाइपरटेंशन, मोटापा, डायबिटीज, कैंसर, मानसिक व्याधियां समूचे भूमंडल पर मंडराने लगी हैं। इन सभी खामियाजों से निवारण का उपाय योग में दिखता है।

परम शक्ति से जुड़ाव

योग का सीधा अर्थ है जुड़ावः आत्मा का शरीर से, शरीर का सांस से, सांस का प्रकृति से, समूचे व्यक्ति का ब्रह्मांड से और जीवात्मा का परमात्मा से। उस जीत के कोई मायने नहीं जब भले ही समूची दुनिया काबू में आ जाए किंतु अपनी आत्मा ही मर जाए। मन-शरीर-आत्मा के तालमेल में असंतुलन व्याधियों और विकृतियों की जननी है। व्याधि, तृष्णा और कुंठाओं के चलते वैचारिक स्पष्टता, मंशाओं की सदाशयता और शरीर की दुरस्ती सुनिश्चित नहीं की जा सकेगी। इसीलिए योगाभ्यास के आरंभिक चरण में प्राणायाम और आसनों के जरिए शरीर और मन के विकारों को निष्क्रिय किया जाता है। आगामी चरणों में मानसिक नियंत्रण और अनुशासन के निरंतर अभ्यास से प्रकृति और परमशक्ति से जुड़ते हुए ध्यान तथा समाधि की अवस्था में पहुंचते हैं।

सांसों पर नियंत्रण योग का बुनियादी सिद्वांत है। कुछ विशेज्ञ तो मानते हैं कि सेहत का दारोमदार पोषण से कहीं अधिक सांसों पर है

योग के पितामह पतंजलि के अनुसार योग मन की चलायमान प्रवृत्ति के प्रतिकूल आचरण में ढ़ल जाने का पर्याय है। प्रत्येक आत्मा स्थिरता और स्वयं की पहचान चाहती है, योग हमें ब्रह्मांड में हमारी भूमिका के ज्ञान से रूबरू कराता है। योगी को खालीपन नहीं खटकता, बल्कि उसे सदा परिपूर्णता का अहसास रहता है। यौगिक क्रियाएं आसनों तक सीमित नहीं है, कठोर साधना के उपरांत योग की उच्चतम अवस्था यानी ध्यान में लीन हो जाने पर व्यक्ति का समूचा व्यक्तित्व दिव्य हो जाता है। भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद सरीखे महायोगी इस दिव्य अवस्था को प्राप्त हुए थे। इस जाग्रत अवस्था में जीव में केवल नेकी का भाव प्रधान रहता है तथा घृणा, वैमनस्य, शत्रुता आदि नकारात्मक भाव स्वतः लुप्त हो जाते हैं, उसमें अपने-पराए का भाव भी बरई नाम रहता है।

योग की उफनती लोकप्रियता और इसका बाजार

लौकिक ख्वाहिशों की आपूर्ति में भटके रहने से आत्माएं सुखचैन से कैसे रहेंगीं। तब उन्हें योग और ध्यान में आशा की किरण दिखती है। बेशक योग और ध्यान क्रियाओं में इहलोक में दुरस्त रहने और परलोक सुधारने की जुगतें हैं, यह दूसरी बात है कि उन्हें साधने के लिए एकाग्रता और दृढ़ निश्चय चाहिए।

भारतीय उद्गम के पांच हजार पुराने योगविज्ञान को लोकप्रिय बनाने में बाबा रामदेव की अहम भूमिका रही, उनके प्राणायाम व अन्य आसनों के संदेशों ने समूची दुनिया में योग का परचम फैलाया। अपने देश की उत्पत्ति के योग विज्ञान का हो-हल्ला देख भारतीयों को भी इसमें दम नजर आया और उनमें भाव जगा, ‘‘मैं भी क्यों नहीं’’। सुबह देर तक सोए रहने वाले कई लोग अब पार्कों, बगीचों, फिटनेस केंद्रों का रुख लेने लगे हैं। बाबा रामदेव ने जिस पैमाने पर प्राणायाम और आसनों को प्रचारित-प्रसारित कर करोड़ों को स्वास्थ्य लाभ दिया उतना संभवतः समूचे चिकित्सक वर्ग ने नहीं, इसके लिए विश्व समुदाय उनका ऋणी रहेगा।

धन्य हैं स्वदेशी भाव से ओतप्रोत हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनके प्रयासों से पहली बार योग की क्रांति आई, जब उनकी पहल पर 2015 में 21 जून का दिन अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस बतौर घोषित कर दिया गया। इस मुहिम को तब सभी पंथों के 193 राष्ट्रों का समर्थन मिला। अनेक मुस्लिम देशों ने दबे स्वर में, तो मलेशिया, इंडोनेशिया ने खुल कर इस बाबत सहमति जताई। कार्यदक्षता बढ़ाने में योग की कारगरता के मद्देनजर बहुतेरे विदेशी शैक्षिक संस्थानों ने अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की स्थापना से पहले ही छात्रों के लिए और औद्योगिक संगठनों ने अपने कार्मिकों के लिए योग और ध्यान अनिवार्य कर दिया था। जनता की जल्द आरोग्य होने की मंशा को योग और फिटनेस कारोबारियों ने पहचाना है और इसका जम कर लाभ लेना शुरू कर दिया हैं और उनकी दुकानें खूब फलफूल रही हैं।

हृष्टपुष्ट रहते हुए जीवन का अधिकाधिक आस्वादन लेने के मकसद से संपन्न पश्चिमी समाज को भी योग रास आ गया। स्वदेशी बाजार ने जमाने की मांग को भांप लिया है और ऋषिकेश, पुणे, नागपुर व अनेक दक्षिणी शहरों में योग केंद्रों का अंबार है, कुछ में आपको अधिसंख्य ग्राहक विदेशी ही दिखेंगे। योग की दुकानदारी खूब फलफूल रही हैं। योग सिखाने के नाम पर कलाबाजियों से दर्शकों को अभिभूत करने के झट बाद उन्हें चेहरा निखारने के लिए साबुन, क्रीम, इत्र व अन्य सौंदर्य सामग्री खरीदने की पैरवी की जाती है। क्या यह योगगुरु प्रथा की तौहीन नहीं है?

योग में अनेक मर्जों का समाधान है। बाजार कुछ भी करता रहे, यौगिक क्रियाओं को सीखने, अपनाने की कम खर्चीली, निःशुल्क सुविधाएं जगह-जगह उपलब्ध हैं। अपने ढ़ाई हाथ की काया, मन और चित्त को यौगिक क्रियाओं द्वारा दुरस्त रखना आपके हाथ में है, इसमें कोताही न बरती जाए।

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यह आलेख भिन्न प्रारूप में दैनिक वीर अर्जुन में 30 जून 2019 को प्रकाशित हुआ था।

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