सत्संग महफिलों में नहीं, नेक संगत से मिलता है

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रात को फोन पर उन्हें कोई जरूरी सूचना देने के बाद मैंने सरसरी तौर पर क्या कह डाला, ‘‘खाना तो हो गया होगा, नौ बज चुके हैं’’ कि उन्होंने दिल में भरी खीजों का पिटारा खोल दिया – ‘‘अब वो दिन फाख्ता हुए जब ऐन आठ बजे दोनों बच्चों और मुझे खाना नसीब हो जाता था। तुम्हारी भाभी अब सत्संगी हो चली हैं। फिलहाल सुबह-शाम हफ्ते भर चलने वाले महाराज 108 के सत्संग के ओरिएंटेशन प्रोग्राम में पानीपत गई हैं, मंडली के अन्य नए कंठीधारी संगिनियों के साथ, आज दूसरा दिन है। बता रही थी, नए मेम्बरान को इसमें भाग लेना जरूरी है। हम तीनों जन मिलजुल कर जैसे तैसे पेट की तुष्टि के जुगाड़ में व्यस्त हैं।’’

बेहतरी के लिए, सही मायनों में जीने के लिए सत्संग बेशक जरूरी है, लेकिन पहले समझा जाए सत्संग क्या है? कंठीधारियों के हुजूम में शामिल हो जाने भर का नाम सत्संग नहीं है!
चैका चूल्हा तथा अन्य जिम्मेदारियां दरकिनार कर फलां गुरुवर से ‘ज्ञान-अमृत’ ग्रहण करने, ‘सिद्ध’ गुरु के मार्फत ‘पुण्य’ अर्जित करने की लालसा में कभी इधर तो कभी उधर भटकती महिलाओं को आपने देखा होगा। कस्तूरी भीतर बसे, मृग ढूंढ़त वन माहिं। सुख-शांति के लिए दर-दर विचरते बेचारे नहीं समझना चाहते कि परमात्मा ने चैन से, सार्थक जीने की कुंजी प्रत्येक मनुष्य को दे रखी है, उसे बस सुविचार से पहचानना है। जो धर्म, मजबह, पंथ सीधे या परोक्ष रूप से आपको अपने कर्तव्यों से विमुख कराता है, आपके सहज जीवन यापन में बाधक है, वह आपके जीवन को बेहतर नहीं बनाएगा। सच्चा धर्मगुरु तो आपकी पारिवारिक दायित्वों के प्रति कोताही बरदाश्त नहीं करेगा। धर्मग्रंथों में स्पष्ट उल्लिखित है कि मजहबी रीति-रस्मों की अनुपालना का यह अर्थ नहीं कि नौकरी, व्यवसाय या आजीविका निभाने में ढ़िलाई बरती जाए। मसलन उपवास रखने के यह मायने नहीं अन्य पारिवारिक सदस्यों को आप समुचित भोजन नहीं खिलाएंगे या ड्यूटी पर देर से जाएंगे या उपवास के नाम पर आफिस का जरूरी काम छोड़ कर जल्द घर आ कर सो जाएं। उपवास के हिंदू तौरतरीकों में विशेष संयम बरतने संस्तुति है और इस दौरान सो जाने की मनाही है। शादी या अन्य धार्मिक अनुष्ठान व्यावहारिक पक्षों को देखते हुए सामथ्र्य के भीतर निभाए जाने हैं।

अस्सी के दशक में अपने भोपाल प्रवास में मुझे सुपर लेक लाॅज नामक सकीला बानो भोपाली की लाॅज में बतौर किराएदार रहने का मौका मिला था जिसके संचालक उनके भाई थे। एकबारगी मैंने उनसे पूछा, इस गरीब मुल्क में ईद में बकरा नहीं भेंट कर सकने वालों को पुण्य कैसे मिलेगा? जवाब में उन्होंने एक कहानी सुनाई जिसका मजनून है – एक नवाबजादा और एक दीनहीन फटीचर का ईद में भेंट किया जाने वाला बकरा कहीं खो गया। मौलवी को जब दोनों ने दुखड़ा सुनाया तो नवाबजादे को मौलवी ने कहा, कोई बात नहीं, तुम्हें माफ किया। फटीचर का नंबर आया तो उसे दुत्कारा, फटकारा गया – ईद का बकरा खो दिया, तुम्हें दूसरा बकरा पेश करना ही होगा। जब अपन के पल्ले नहीं पड़ी तो महाश्य ने बताया, कुरान में लिखा हुआ है कि बकरा तभी पेश करना है जब हैसियत हो, अन्यथा हरगिज नहीं। फटीचर ने अपनी हैसियत से बाहर जाने का गुनाह किया था जिसकी उसे सजा मिली। मतलब यह कि हालातों के अनुसार चलना है, दस्तूर निभाना बाद की बात है। यही बात ‘सत्संगों’ में भागीदारी के मामलों में अपनानी चाहिए।

प्रवचन सुनने के लिए आयाराम, गयाराम की महफिल में जाते रहने का नाम सत्संग नहीं है! अपने इर्दगिर्द उन व्यक्तियों को पहचानें जिनके कार्य और बोल अन्यों को राहत देते रहे हैं जिनकी अपने साथियों, सहकर्मियों, अधीनस्थों को हिकारत से देखते रहने की फितरत नहीं रही है। जो व्यक्ति आपका मनोबल बढ़ाने में सहायक हों उन्हीं के सानिध्य में रहेंगे तो जीवन सफल हो जाएगा। जो धर्मगुरु आपको अपने कर्तव्यों से विमुख कराता है वह सच्चा गुरु नहीं हो सकता। सच्चा गुरु तो आपको पारिवारिक दायित्वों में कोताही बरदाश्त नहीं करेगा।

सुख-शांति तो नेकी करने और नेकी करने वालों की संगत में रहने से मिलेगी, यानी अपने कर्म और सोच को सुधारना होगा, यह कौन समझाए। यह जरूर है कि तथाकथित सत्संगों में पधारते भक्तों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है और इन सत्संगों के आयोजक, प्रायोजक एक बंधी यानी कैप्टिव मार्किट का जम कर फायदा उठा रहे हैं, उनकी दुकानें धड़ल्ले से चल रही हैं। सत्संग के दौरान बाहर लगे स्टालों के अतिरिक्त अन्य दुकानों में उनके द्वारा निर्मित या वितरित किया जाने वाला कमोबेश सभी सामान मिल जाएगा – दंतमंजन, फेस वाश, धूपबŸाी, अगरबŸाी, तमाम बीमारियों के लिए गोलियां, शर्बत, यंत्र, टोटके, खट्टी मीठी गोलियां, थैले, जूते, हर्बल चाय, स्वाष्टि पेय, टाॅनिक, साबुन, कपड़े, दवाएं, आदि। सुना है कुछ सत्संगी कंपनियां माचिस, बम-पटाके, सौंदर्य प्रसाधन भी बिक्री की फेहरिस्त में जोड़ रही हैं। क्या आप जानते हैं कि सत्संग के आयोजन में समूची व्यवस्था आपको उन्हें के गुर्गों से करानी होती है? जिस दरी पर भक्तगण बैठेंगे, वह भी उन्हीं की दुकान से आएगी।

मंच पर बैठे बाबा 1008 के अक्सर ऐलान किए जाते शब्दों पर गौर किया जाए। फालतू की चीजों पर तो आप खासी रकम खर्चते हो, जब पुण्य की बात आए, जैसे धर्मात्मा या पंडितजी को देना हो तो कंजूसी बरतते हो। दिल खोल कर सेवा करना सीखिए। ऊपर साथ ले जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। जो भी है, यहीं छूट जाएगा, इसलिए बेहतर है दान कर डालो। जो शब्द बोले नहीं जाते, भक्त के समझने के लिए छोड़ दिए जाते हैं वे हैं – प्रभु के सबसे सही, भरोसेमंद नुमाइंदे हम ही हैं। यह भी कि आप सीधे प्रभु तक नहीं पहुंच सकते, हमारे मार्फत ही प्रभु तक आपकी विनती पहुंचेगी, अतः हमारी शरण में आ जाइए।

जैसी संगत बनाएंगे, वैसे ही बन जाएंगे। चील के बच्चे को चूजों के साथ पालते हैं तो वह चूजों की तर्ज पर फुदकना सीखने और उड़ने में असमर्थ हो जाने के किस्से देखे नहीं तो सुने जरूर होंगे। सदाचारी, नेकनिष्ठा से जीने वालों के साथ रहेंगे तो उन्हीं की भांति साचेंगे और आचरण करेंगे। यही सत्संग है जो आपको सदा सुफल देगा। आप जो भी हैं, अपनी संगत को दोषी नहीं ठहरा सकता, यह आपका चयन है। हर गली, कूचे में नेक, सदाचारी और लम्पट दोनों फितरतों के लोग रहते हैं। यह आप पर निर्भर है आप कैसी संगत बनाते या चुनते हैं। अपनी ख्वाहिशों और रुझान के अनुसार आप चुनते हैं कि आपको किन प्रकार के व्यक्तियों के साथ जीवनयात्रा में आगे बढ़ना है। बेहतर होगा अपनी ख्वाहिशों और मंसूबों का आकलन करें, इनका स्वरूप क्या, कैसा है, आपकी दिशा क्या है? सुविचार से इनमें तब्दील भी ला सकते हैं किंतु इस कार्य में जितना देरी करेंगे उतना ही सुधार दुष्कर होगा।
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दैनिक वीर अर्जुन के बिंदास बोल स्तंभ में 17 मार्च 2019 को प्रकाशित
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