साढ़े तीन दशक पुराना वाकिया है। एक मित्र के घर जब भी जाता, उसकी मां मुझे एक ओर ले जा कर शुरू हो जातींः ‘‘बेटे की उम्र ढ़ल रही है, रिश्ते भी आ रहे हैं लेकिन शादी की चर्चा पर वह खफा हो जाता है, एक नहीं सुनता। तुम उसके करीबी मित्र हो, समझाओ; तुम्हारी सुनेगा’’, ऐसा कहते वे रुआंसी हो उठतीं। हर मुलाकात में यही क्रम चलता। दिन पलटे, शादी हो गई। बहू घर आने के हफ्ते बाद वहां पहुंचा तो उसी पुरानी तर्ज पर मित्र की मां फबक-फबक कर रोने लगीं! मैं भौंचक्का था, अब क्या माजरा है? ‘‘मौका मिलना चाहिए बहू को, जब देखो जबान लड़ाती है, खाने-पहनने का शऊर नहीं, किसी का अदब नहीं। बहू के आते ही हमारी तो किस्मत फूट गई!’’
महात्मा बुद्ध के मठ में आए एक नए शिष्य की असंतुष्टि का वैसा ही प्रसंग है। दूसरे ही दिन शिष्य ने मठ में परोसे गए भोजन पर आपत्ति जताई। बुद्ध ने शिकायत सुन कर उसे इशारे से मुद्दे को नजरअंदाज करने की सलाह दी। तीसरे दिन उसका दुखड़ा था कि बिस्तर आरामदायक नहीं है, नींद नहीं आती; चौथे दिन कमरे में साथी के व्यवहार पर खेद जताया। बुद्ध ने कहा, ‘‘चार दिनों में छह शिकायतें! यहां रहना तुम्हारे बस का नहीं, अपनी राह देख लो!’’
नए कर्मचारी को कार्यस्थल की एक-दर-एक त्रुटियां गिनाते सहकर्मी बताएंगे कि इस सरीखा निकृष्ट महकमा और यहां सरीखे निहायत मतलबी, निकम्मे अधिकारी अन्यत्र नहीं मिलेंगे। मित्रों, रिश्तेदारों, सहकर्मियों में कुछ ऐसे मिलेंगे जिन्हें पत्नी या पति, संतान, भाई-बहन, मातापिता सहित प्रत्येक व्यक्ति से शिकायत है; जो जैसे तैसे दिन काटते हैं। उनके लिए जीवन कर्म या आनंद स्थली नहीं, अभिशाप है। ढ़ेरों शिकवे, गिलवे दिल में ठूंस कर सहेजने वाले वे शख्स हैं जिन्हें सर्वत्र नुक्स दिखते हैं। दर असल शिकायती मुद्रा में रहना लत है। आयुष्मान खुराना का एक ट्वीट है, ‘‘शिकायत है उन्हें भी जिंदगी से, जिन्हें सब कुछ दिया है जिंदगी ने।’’
अंतःकरण में बवंडर हों तो बाह्य परिस्थितियों, व्यक्तियों, और उनके आचरण से खीज होगी। इसके विपरीत, यदि सामने वाले के प्रति सहानुभूति होगी, उसकी बेहतरी का भाव होगा तो मन क्षुब्ध नहीं रहेगा, चित्त संयत रहेगा। ध्यान कर्तव्य वाहन पर होगा तो शिकायतें जरब हो जाएंगी। दुर्भावयुक्त मन कुंठा का आवास है। ऐसे में दिनचर्याएं उन्मुक्त, प्रसन्नचित्त और शांत न रहेंगी, भगवत्कृपा भी नहीं बरसेगी। इसके विपरीत, जिसकी रुचि अपने कार्य साधते रहने और परहित में है वह शिकायतें नहीं करेगा, दूसरों में खोट नहीं तलाशेगा। वह जानता है कि कठिनाइयां, चुनौतियां और दुष्कर परिस्थितियां जीवन का अभिन्न अंग हैं; परिपूर्ण परिस्थितियां नहीं मिलेंगी और प्रत्येक मनुष्य में न्यूनाधिक गुण-अवगुण रहते हैं, जिन्हें स्वीकारते हुए हमें निष्ठा से कर्मरत रहना है। कार्यस्थल की परिस्थितियां असह्य लगने पर नौकरी छोड़ देना, या पड़ोसी के असहज व्यवहार पर मकान बदल डालना हालातों से निबटने की अक्षमता है, अपरिपक्व सोच का परिचायक है। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति समझता है कि दूसरों पर आक्षेप लगाने की वृत्ति हमारी जीवनयात्रा में अवरोध बनेगी। जिसे नृत्य करना है वह टेढ़े आंगन की, और जिसे सुंदर लिखना है वह टूटी कलम की शिकायत नहीं करेगा।
आशय यह नहीं कि दिल में उमड़ती पीड़ाएं, अप्रिय अनुभूतियां और निजी सरोकार साझा न किए जाएं; इन्हें घरे रखने, सिंचित करने से मन और चित्त विकृतियों से भर जाएगा। कचोटते सरोकारों को स्वयं तक सीमित रखना दिव्य शरीर के प्रति अन्याय है। विवेक और औचित्य की कसौटी पर खरे न उतरते या दिल-मन को ठेस पहुंचाते सरोकारों को उन अंतरंग परिजनों, मित्रों से साझा कर सकते हैं जिनकी सदाशयताएं कालांतर में सिद्ध हो गई हैं। जब एक लक्ष्य ठान लिया है जिसे पाने के लिए आप मर-मिटने को तैयार हैं, उस मार्ग में आतीं छिटपुट कठिनाइयों पर क्यों रोना धोना? डेल कार्नेगी ने कहा, ‘‘कोई भी मूर्ख शिकायत, आलोचना या निंदा कर सकता है, ज्यादातर मूर्ख करते ही हैं।’’ शिकायतें करनी ही हों तो अवश्य करें, किंतु बोल कर नहीं; इन्हें समुद्र किनारे रेत में लिख डालें।
……………………………………………………………………..
तनिक छोटे रूप में यह आलेख नवभारत टाइम्स के संपादकीय पन्ने पर स्पीकिंग ट्री कालम में 29 नवंबर 2019 को ‘‘लक्ष्य बड़ा हो तो बाधाओं से लड़ना भी सीखना चाहिए’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
- …………………………………………………..