निजी भाषा को भरपूर व्यवहार में लाना व्यक्ति और समाज के चहुमुखी विकास के लिए अनिवार्य है।
भारत में प्रचलित 1600 भाषाओं में से अधिकांश की समृद्ध मौखिक या/और लिखित परंपराएं हैं, ये सभी जीवंतता व विविधता से परिपूर्ण हैं। इन स्थानीय भाषाओं ने सदियों तक लोकजीवन में प्राण संचारित करते हुए जनमानस को उद्वेलित, आह्लादित, आनंदित किया है; लोगों की करुणा, व्यथा और उल्लास को गले उतरने वाले सुबोध शब्दों के जरिए अभिव्यक्ति दी है। तथापि वैश्वीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति से स्थानीय भाषाओं की अनदेखी और उपेक्षा परिलक्षित होती है। शहरी, अर्धशहरी व आंचलिक स्तरों पर अपनी जड़ें जमा रही नव संस्कृति के चलते अब कुछ लोगों को अपनी भाषा और संस्कृति में खोट दिखते हैं और बाहरी संस्कृति को समेटे विदेशी भाषाएं श्रेयस्कर और अनुकरणीय लग रही हैं। स्वदेशी भाषा पर गर्व होना, उसे व्यवहार में लाना उन्हें लज्जाजनक प्रतीत होता है। अफ्रीकी साहित्यकार एन्गुगी वा थियोंग कहते हैं, भाषा के बिना कोई समुदाय उस व्यक्ति के समान है जिसकी आत्मा नहीं होती।
सांस्कृतिक संवर्धन में मातृभाषा की अहम भूमिका
मातृभाषाओं की उपेक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र किसी के हित में नहीं है और दुर्भाग्यपूर्ण है। भाषा व संस्कृति के विदेशी मॉडलों को श्रेयस्कर समझने की प्रवृत्ति व्यक्ति के स्वाभिमान को खंडित करती है और उसके समग्र विकास में बाधक है। स्वदेशी भाषाओं के प्रति अभिमान की पुनर्स्थापना के लिए उपाय न किए गए तो विकास अधूरा रह जाएगा। इतिहास साक्षी है, जिन देशों ने निज भाषा और संस्कृति के प्रति समादर भाव रखा वे प्रगति करते चले गए।
सही मायनों में अपनी भाषा, अपनी माटी, अपनी संस्कृति के प्रति गर्वान्वित महसूस करना बेहतरी की शर्त है। ऐसा भाव व्यक्ति को अतिरिक्त शक्ति व उल्साह प्रदान करता है जिसके चलते वह नाना प्रकार की परिस्थितियों से निबटने में सक्षम बनता है। जिनमें यह भाव नहीं उनसे सर वाल्टर स्कॉट का प्रश्न हैं, ‘‘क्या उस व्यक्ति को इंसान कहा जाना चाहिए जिसके मुंह से यह नहीं फूटता – यह मेंरी, मेंरी अपनी मातृभूमि है”। मातृभाषा सहित स्वदेशी मूल्यों के प्रति निष्ठा उन मानवीय संवेगों को सक्रिय करती हैं जो अन्यथा सुषुप्त रहती हैं और जिनकी सक्रियता हमें अप्रत्याशित ऊंचाइयों पर ले जाती है।
अभिव्यक्ति ही वह साधन है जो मनुष्य को अन्य जीवों से श्रेष्ठ बनाता है (न हि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं किंचित् यानी मनुष्य का दर्जा अन्य सभी प्राणियों में सर्वोपरि है – ऋग्वेद)। तथापि भावना व विचारों की सहज, सुबोध व निर्बाध अभिव्यक्ति उसी भाषा में संभव है जो हमें मां से विरासत में मिली है न कि विदेशी भाषा में। सृजनानात्मक लेखन में यह सिद्धांत विशेषकर लागू होता है। दशकों पूर्व मेरी प्रिय कहानियां के आमुख में प्रसिद्ध कथा लेखिका उषा प्रियंवदा ने लिखा ‘‘लंबे अरसे तक विदेश में जीवन बिताने के उपरांत मुझे अहसास हुआ कि यदि मुझसे कुछ सार्थक लिखा जाएगा तो हिंदी में ही”। उल्लेखनीय है कि पद्मभूषण से समानित लेखिका अमरीका के विस्कॉन्सिन, मैडिसन, ब्लूमिंगटन इंडियाना विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी की प्रोफेसर रहीं हैं।
कोई भी मातृभाषा स्थानीय भाव-भंगिमाओं से सराबोर रहती है, यह वह दृष्टि व आयाम प्रदान करती है जिसके जरिए हम दुनिया को देखते-समझते हैं। बच्चे का भावनात्मक व बौद्धिक विकास, और अवधारणाओं व लोकोक्तियों-मिथकों की स्पष्टता मातृभाषा के माध्यम में ही संभव है, रूपांतरित भाषा में नहीं। मातृभाषा में पिछड़ापन अभिव्यक्ति और बौद्धिकता में अवरोध है।
मातृभाषा दिवस आयोजन का महत्व
मातृ भाषा की अहमियत को मद्देनजर रखते हुए यूनेस्को 1999 से सभी देशों में 21 फरवरी का दिन अंतर्राष्ट्रीय मातृपभाषा बतौर मनाता है। इसका उद्देश्य संगोष्ठियों व अन्य कार्यक्रमों के जरिए देशज भाषाओं को संरक्षित करना, उनके प्रति अभिरुचि जागृत करना और भाषाई व सांस्कृतिक विविधता तथा बहुभाषिता को सवंर्धित करना है। द्विभाषिकता व बहुभाषिता विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव व एकता बनाने का प्रभावी साधन भी है। इस वर्ष मातृभाषा दिवस का मुख्य विचारबिंदु तकनीकी साधनों के भरपूर प्रयोग से बहुभाषिता को सवंर्धित करना है। अनेक अध्यययनों से सिद्ध है कि बच्चे एकसाथ एकाधिक भाषाएं सहजता से सीख सकते हैं चूंकि इस प्रक्रिया में मस्तिष्क के विभिन्न अंश कार्यशील होते हैं। मातृभाषा को प्रोत्साहित करने का आशय विदेशी भाषा का तिरस्कार नहीं है। ब्रिटिश नाट्यकार इंगेलबर्ट ने कहा, विदेशी भाषा सिखाने का मतलब है विदेशी संस्कृति से रूबरू कराना।
हमारे देश में अंग्रेजी हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं पर हावी हो रही, जो अस्वस्थ प्रवृत्ति है। संभ्रांत वर्ग अपने बच्चों को मातृभाषा सीखने पर तवज्जो नहीं देता जिससे अंततोगत्वा यही बच्चे लोक संस्कृति के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। ज्ञानपीठ विजेता यू.आर. अनंतमूर्ति के शब्दों में, शुरुआती दौर में शैक्षिक माध्यम के तौर पर मातृभाषा ही सर्वोत्तम है, सेकंडरी कक्षाओं में अंग्रेजी सिखाई जा सकती है। भाषाविद बताते हैं कि बच्चे अच्छी अंग्रेजी तभी सीखते हैं जब वे अंग्रेजी के साथसाथ अपनी मूल भाषा विकसित करते रहते हैं। स्वदेशी भाषाओं को पुख्ता करने की सख्त जरूरत है किंतु इस मुद्दे पर सदा राजनीति की गई और भाषाएं जस की तस रहीं। यह दूसरी बात है कि पिछले कुछ सालों से भारतीय भाषाओं के प्रति तनिक आकर्षण बढ़ा है जो अच्छा लक्षण है। नेल्सन मंडेला कहते थे, ‘‘जब आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बतियाते हैं जो वह समझता है तो वह उसके दिमाग में जाती है और जब उस भाषा में बोलते हैं जो उसकी भाषा है तो वह सामने वाले के हृदय तक पहुंचती है”।
अंग्रेजी व कुछ चुनींदा भाषाओं के वर्चस्व के चलते इसे भाषाओं की दुर्गत ही कहेंगे कि संप्रति विश्व की तकरीबन 5100 भाषाओं में से 100 ही जीवित रहेंगी। जर्मन अध्येता वाल्फगैंग सैश की मान्यता है कि अधिकांश लुप्तमान भाषाओं के विलोपन से वे तमाम संस्कृतियां काल के गर्त में समा जाएंगी। भारतीय पॉप सिंगर कैलाश खेर ने कहा, ‘‘अंग्रेजी भावनाओं को जाहिर करने में वह जादुई तिलस्म नहीं पैदा कर सकती जो मातृभाषा करती है”।
यूनेस्को के भाषाई प्रतिनिधि विगदिस फिन्बोगडोटर के अनुसार, ‘‘भाषा के खत्म होने से हर कोई घाटे में रहता है चूंकि तब एक राष्ट्र और संस्कृति की याददाश्त खत्म हो जाती है और इसी के साथ वह तानाबाना जिसकी वजह से विश्व खुशनुमां स्थली है। भाषाएं विश्व संस्कृति की धरोहर हैं। जब हम स्वदेशी भाषा को हृदय से अपना कर इसे व्यवहार में लाएंगे, समझ लिया जाए कि बेहतरी और विकास के द्वार खुल गए हैं।
देश की मौजूदा सरकार द्वारा भारतीय भाषाओं को समुचित सम्मान स्थान दिलाने की मुहिम दूरदर्शिता का संकेत है। यह सोच देशी तौरतरीकों की बहाली की दिशा में सार्थक प्रयासों का अंग है तथा देश के सुनहरे भविष्य का परिचायक भी।
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यह आलेख लेखक के राजस्थान पत्रिका में 21 फरवरी 2015 को प्रकाशित आलेख का संशोधित रूपांतर है।
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बहुत सही आकलन! पर यही कह सकता हूं कि भाषा समझने-समझाने का साधन मात्र है। इससे परे का विमर्श शायद शिक्षाविदों के निमित्त ही है।
बहुत सही लिखा है।
सटीक आकलन! अपनी भाषा मे किया संवाद दिल के कोने कोने तक पहुंचता है और उसका असर बहुधा सार्थक होता है। हरीश जी ने इस बारीक बात को बखूबी प्रस्तुत किया है।