वह मकान किसी को नहीं फबता, फलां फलां दिन अमुक कार्य के लिए शुभ नहीं होते – ऐसी धारणाएं बनाने वाले न स्वयं खुशनुमां रहते हैं , दूसरों को और दुखी करते हैं। इसके बदले, यह गांठ बांध ली जाए, अपने चित्त और मन को दुरस्त कैसे रखना है तो जीवन आनंद बन जाएगा।
वास्तु का टंटा
मकान के पुननिर्माण के सिलसिले में एक व्यक्ति ने साथियों के आग्रह पर एक नामी वास्तुविद को आमंत्रित किया। एयरपोर्ट से घर लाए जाते समय वास्तुविद ने ड्राइविंग पर टिप्पणी की, ‘‘आप हॉर्न बजाने वाले प्रत्येक वाहन को रास्ता दे रहे हैं’’। उत्तर मिला, ‘‘कुछ व्यक्ति जल्दी में होते हैं, उन्हें जाने देना मुझे ठीक लगता है’’। घर निकट आने पर तंग सड़़क में कार धीमी हो गई थी। तभी हाथ में गेंद थामे तेजी से दौड़ता एक नन्हा बालक कार के आगे सर्र से निकल गया। अब कार का बेहद धीमा हो जाना वास्तुविद को समझ नहीं आ रहा था। तभी दो-तीन और बच्चे आए और पहले बच्चे की दिशा में झटपट कूच कर गए। वास्तुविद को बताया गया, ‘‘पहले बच्चे के हावभाव से स्पष्ट था कि अन्य बच्चे उसका पीछा जरूर करेंगे’’।
गंतव्य पर पहुंचने पर कार रोक कर वास्तुविद से कुछ मिनट रुकने का अनुरोध किया गया, ‘‘आंगन के पेड़ पर चढ़े कुछ बच्चे चोरी से फल तोड़ रहे हैं। हमें अचानक देख कर हड़बड़़ाहट में उतरने से उनके हाथपांव टूट सकते हैं’’।
वास्तुविद ने अपनी सम्मति दी – जिस घर में आप सरीखे दूसरों का पूरा खयाल रखते सज्जन वास करते हों वहां वास्तु के नियमों और संस्तुतियों पर विचार की आवश्यकता नहीं पड़़ती!
आपके कारण दूसरे आहत न हों, यही बड़ी बात है
प्रार्थना, स्तुति, ध्यान आदि को परमात्मा से जुड़ने का साधन माना गया है। परमात्मा से तादात्म्य इसलिए बनाए रखना है ताकि हम सदा निजी स्वार्थों में लिप्त न रहें, संकीर्णताओं से उठें, विशाल ब्रह्मांड की व्यवस्था को बूझते हुए अहंकार कदापि न करें और सभी प्राणियों के लिए सहभाव रखें। लोकाचार के नियम, उपनियम, अनुष्ठान, अर्चनाएं आदि की अनदेखी से अनिष्ट का भय दिखा कर लोगों को सुमार्ग की ओर प्रशस्त रखा गया। किंतु जो मन स्वभाववश सदाशयता और परहित भावनाओं से सराबोर है उसे नियमों, रीतियों से बंधना आवश्यक नहीं। घर की माता की यथोचित परवरिश सुनिश्चित कर ली जाए तो मंदिरों की देवियां स्वतः प्रसन्न हो जाएंगी। तीर्थाटन से पुण्य मिले न मिले, परिवार के वृद्धजनों को कष्ट न देने, उनकी सप्रेम टहल और उनसे आत्मीय संवादों से पुण्य मिलना तय है।
शुभ-अशुभ का विचार
धार्मिक तथा अन्य अनुष्ठानों के शुभ मुहूर्त जानने के लिए नामी पुरोहितों के द्वार पर जिज्ञासुओं का जमघट रहता है। वर-वधू के निर्णय में कुंडली और ग्रहदशा मिलान; विवाह की तिथि, प्रस्तावित भवन में दिशा दोष, गृहप्रवेश की उपयुक्त वेला, शुरुआती कारोबार या नौकरी की अनुकूल तिथि, यहां तक कि यात्रा के प्रस्थान या वापसी के लिए भी मंगलकारी दिन की चिंता उन्हें ज्यादा सताती है जो अपने विवेक और निर्णय के प्रति आश्वस्त नहीं होते। नाना पक्षों पर विचार के उपरांत भी जल्द टूटते विवाह, या शुभ मुहूर्त में संपादित कार्य के चौपट होते देख कर भी उन्हें नहीं कौंधता कि कार्य की परिणति में नियम की अनुपालना या रस्म निभाने से उच्चतर भूमिका शुद्ध मनोभावों और मानवीय रुख अपनाने की है।
धर्म, कानून और समाज के सुचालन के लिए निर्मित नियम-विनियमों और आचार संहिताओं का स्वरूप सैद्धांतिक रखा जाता है, इनके आरंभ या अंत में प्रायः उल्लेख होता है – देश-काल के अनुरूप परिस्थितिविशेष में इनमें यथोचित ढ़ील दी जा सकती है क्योंकि अहम लक्ष्य की प्राप्ति है। सरकारी या अन्य संगठनों में अहम नियुक्तियों में अनेक ऐसे प्रार्थियों के चयनित होने के उदाहरण हैं जिनके ठोस योगदान के परिप्रेक्ष्य में निर्धारित पैमानों को दरकिनार कर दिया गया।
सदाशयताएं हों तो परमशक्तियां सहयोग देंगी
उद्देश्य परहित में हो तथा सोच उलझनरहित, तो कार्य सीढ़ी-दर-सीढ़ी अनुकूल गति से निभ जाएगा, इसके मनोवैज्ञानिक और परालौकिक कारण हैं। जब कर्ता मनोयोग से कार्य में जुटता है तो उसकी समूची सामर्थ्य समेकित हो जाती और कार्य संपन्न हो जाता है। दूसरा, जब वृहत्तर शक्तियां आश्वस्त होती हैं कि कार्य निजी, तुच्छ स्वार्थ से अभिप्रेरित नहीं बल्कि बड़े प्रयोजन के अनुसरण में है तो वे अप्रत्याशित रूप से अनुकूल परिस्थितियां निर्मित करती हैं।
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आलेख का संक्षिप्त रूप 23 जून 2022 के नवभारत टाइम्स, स्पीकिंग ट्री कॉलम में ‘‘रीतियों और नीतियों से कैसे लोगों को मिलता है छुटकारा’’ शीर्षक से प्रकाशित।
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