चुनौती और फिसलनों से भरी होती है कामयाबी की डगर

Bindas Bol
  1. मातापिता की सलाह को शिरोधार्य करते बालक ने तन-मन से बोर्ड परीक्षा की तैयारी में स्वयं को झोंक दिया, साथियों, परिजनों से मेलजोल और संवाद तक बंद कर दिया। नतीजे फक्र के लायक थे। किंतु वक्त को कुछ और ही मंजूर था। उसे अपने अरमान तब स्वाहा होते दिखे जब न तो मनचाहे कालेज में प्रवेश मिला, न ही पंसदीदा कोर्स में। वह डिप्रेशन में चला गया। एक अन्य मामला उस सिविल सर्विस प्रत्याशी का है जिसे अंतिम अवसर में कुछ अंकों से चूक जाने पर दोयम दर्जे का समझा जाता पोस्ट एंड टेलीग्राफ कैडर मिला। वह गुमसुम, अलग-थलग रहने लगा, दिल में हताशा पैठ गई और उसने आत्महत्या का प्रयास किया। दोनों को जो मिला था, उसके लिए अधिकांश लोग तरसते है, किंतु यहां माजरा उलट था। सफलता हताशा का कारण बनी, उपलब्धि अभिशाप साबित हुई!

वाहवाही की झड़ियों के साथसाथ फिसलन और जोखिमों से भरपूर होता है कामयाबी का टीला। कामयाबी साधारण हो या विशिष्ट, नई चुनौतियां, समस्याएं और दुष्कर परिस्थितियां साथ लाएगी। आपकी सफलता औरों के उद्विग्न कर सकती है, साथियों का मनोबल गिरा सकता है उनमें हीनता भाव आ सकता है, नई कटुताएं उत्पन्न हो सकती हैं। आप सुनने से ज्यादा बोलने लगते हैं नतीजन सीखना अवरुद्ध हो सकता है। ज्यों-ज्यों परिस्थितियां बेहतर होती हैं अपेक्षाएं निरंतर बढ़ती रहती हैं, जिनकी आपूर्ति न होने पर व्यक्ति या संगठन पहले से अधिक असंतुष्ट हो जाते हैं। लौकिक कामयाबियों का सिलसिला बरकरार नहीं रहता क्योंकि इस ठौर तक पहुंचने के लिए जरूरी हुनर, साधन और तौरतरीके नए संदर्भ में सांदर्भिक और उपयोगी नहीं रहते।

विजय हासिल करने या शिखरता के टीले पर पहुंचने के बाद गतिशील रहने के लिए दूसरी ही जुगतें चाहिए होती हैं, इनके अभाव में आप डगमगा सकते हैं। इसीलिए एक से एक सूरमा और औद्योगिक घराने बुलंदियां छूने के बाद लुढ़क कर जमीन पर आ जाते हैं, कुछ का तो नामोनिशां मिट जाता है। तीस वर्ष पुराने खानपान, परिधान, जूते, साबुन, रोजाना इस्तेमाल के वे ब्रांड आज लुप्त हैं जिनका अपने-अपने क्षेत्र में एकछत्र साम्राज्य था। अब सुर्खियों में दूसरे ही किरदार हैं। ईसाई ग्रंथ ओल्ड टैस्टामेंट में अनेक राजाओं का उल्लेख है जो युद्ध में पारंगत थे किंतु शत्रुओं को शिकस्त देने के बाद वे चैकड़ भूल जाते थे। कुछ वैसे ही जैसे सत्ता पलटी के बाद क्रांतिकारी एजेंडाविहीन हो जाते हैं।

प्रगति के लिए अभिलाषा संजोना अनिवार्य है। किंतु कामयाबी का क्रम जारी रहे, यह सुनिश्चित करने के लिए इसकी अवधारणा को समझना होगा। कामयाबी के मायने शैक्षिक परिणाम, अमुक पद या संपति हासिल करने या युद्ध जीतने तक सीमित समझेंगे तो ‘लक्ष्य’ प्राप्ति के बाद आपके पास क्या एजेंडा रह जाएगा; नया परिप्रेक्ष्य आपको पशोपेश में डाल देगा। कामयाब होना एक प्रवृत्ति है, एक लक्ष्य तक केंद्रित रहने के बजाए इस वृत्ति का व्यक्ति किसी एक परिणाम को इतिश्री नहीं मान लेता बल्कि अपने कार्य में निरंतर व्यस्त रहता है। उसकी दृष्टि कर्मफल पर नहीं बल्कि कर्म पर रहती है। कर्म के दौरान उसे वह आनंद मिलता है जिससे फल के लालायित व्यक्ति वंचित रहते हैं। वह स्वयं को कर्ता समझने की खुशफहमी में भी नहीं रहता चूंकि उसे ज्ञान होता है कि वह एक विराट व्यवस्था का सजग प्रहरी है। इसके विपरीत, कामयाबी के लौकिक लक्ष्यों से प्रेरित व्यक्ति लक्ष्य पर पहुंचने पर अहंकार से सराबोर हो जाता है। उसके मन में घर जाता है कि उच्च शैक्षिक रिकार्ड, रुतबेदार पद की प्राप्ति या अपार संपदा ने उसे श्रेष्ठ नहीं है, वह पहले से दूसरी, श्रेष्ठ माटी का है। इसी विकृत सोच से वह चाटुकार छद्म मित्रों और असल शत्रुओं से घिरा रहता है और क्रमशः विनाश की ओर अग्रसर रहता है।

भले ही आपमें ऊपर उठने की लौ रही होगी किंतु आपकी उन्नति में जिन अनेक व्यक्तियों, संस्थाओं और परिस्थितियों ने सहयोग दिया उन्हें हेय, तुच्छ न समझें बल्कि उनके प्रति कृतज्ञता भाव रखें। आपकी उच्चतर स्थिति इतराने या स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने के निमित्त नहीं, विशेष सूझबूझ और विवेक बरतते हुए अतिरिक्त जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए; मन, बुद्धि, बल, धन से आपसे हीन, कम सौभाग्यशाली व्यक्तियों से अंतरंग संवाद बना कर उन्हें राहत पहुंचाने, उनका जीवन रौशन करने के लिए है। अपनी सुख-सुविधाओं की आपूर्ति तो निम्नतर श्रेणी के जीवजंतु भी बखूबी कर लेते हैं।

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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग काॅलम के तहत 19 जून 2019 को प्रकाशित।

Link: http://epaper.navbharattimes.com/details/40213-58260-2.html

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