ज्यादा चौकसी और देखभाल बच्चों के विकास में बाधा बन जाती है

कठिन, दुष्कर हालातों से जूझ कर ही बच्चे-बड़ों सभी में निखार आता है। जो व्यक्ति व्यवहारकुशल है, अपना रास्ता खोज लेता है, उसने वक्त के थपेड़े खाए हैं। बच्चों को ज्यादा संरक्षण दे कर आप उसे स्वयं विकसित होने में बाधक बनते हैं।

मैं अपने मित्र के घर उनके इंतजार में था। कौतुहलवश मित्र के सातवीं कक्षा के बालक से पूछा, ‘‘बेटे जरा बताओ, भूगोल में हालिया तुमने क्या पढ़ा?’’ प्रश्न पूरा हुआ ही था कि मेरे लिए पानी लाती लाड़ले की मां शुरू हो गईं, ‘‘आप तो मेरे लल्ला का इंटरव्यू लेने लगे। नया आनलाइन सत्र चालू हुए एक महीना हो गया है किंतु अभी तक की तीनों क्लासिज़ में पृथ्वी, सूर्य और चांद के गिर्द घुमा रहे हैं। दो बार बेचारा तबीयत खराब होने से ठीक से नहीं समझ पाया। खैर, बालक और उसकी पढ़ाई की मुझ से पूछिए। पहले बताएं, घर-परिवार में सब कुशल तो हैं’’। सौर्य प्रणाली के बाबत बालक को चंद तथ्य बताने की मेरी उत्कंठा मन में रह गई।

बच्चे के समुचित विकास के लिए उसे दुनिया से रूबरू होना आवश्यक है। अपनी शिक्षा, नौकरी, कार्य का स्वरूप, कंपनी का कार्यक्षेत्र के बाबत बच्चा बेहतर जानता है। और जब प्रश्न बच्चे से पूछे जाएं और उत्तर मातापिता दें तो बच्चे का विकास अधूरा रहना स्वाभाविक है। बच्चों को अपने कार्य स्वयं करने और खुलने के अवसर नहीं देंगे तो वे प्रौढ़ होने पर पराश्रित रहेंगे। अमेरिकी लेखक एलबर्ट हब्बार्ड कहते हैं, ‘‘जिन बच्चों के लिए मातापिता बहुत कुछ करते, और छोड़ कर जाते हैं, वे अपने लिए स्वयं कुछ ठोस नहीं करेंगे।’’ बच्चों को योग्य और समर्थ बनाने के लिए पशु-पक्षियों से सीखा जा सकता है। मादा जिराफ अपनी नवजात संतान को पहली बार तनिक ऊंचाई से, दूसरी-तीसरी बार और अधिक ऊंचाई से नीचे पटकती है। इस प्रक्रिया से गुजर कर नन्हा जिराफ सुघड़, दृढ़ और आत्मविश्वासी बनता है। पैरेंटिंग का ‘हेलिकाप्टर’ माडल अपनाते मातापिता बच्चे का गला खराब होने पर डाक्टर से कहते सुने गए हैं, ‘‘मेरा ही गला देख लीजिए, मुझे बता दीजिए, मैं उसे सब समझा दूंगा’’।

प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र शरीर और स्वतंत्र मन के साथ दुनिया में आता है, वह प्रभु द्वारा प्रदत्त अथाह सामथ्र्य से परिपूर्ण होता है। बुद्ध ने कहा था, प्रत्येक व्यक्ति की जीवन यात्रा सबसे जुदा होती है जो उसे स्वयं तय करनी है। अपनी अलहदा मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों के बूते वह अकल्पित, अविश्वसनीय मंजिलों तक पहुंच सकता है। किंतु उसे शिकस्त करनी होगी, अपने पंख फैलाने पर ही वह उड़ान भर सकेगा। और पंख तभी खुलेंगे जब वह मन के अंतर्विरोधों और बाह्य अवरोधों से जूझ कर उन्हें पराजित करेगा। प्रश्न उपयुक्त उचित तौरतरीके अपनाने का है।

पौधे की इष्टतम संवृद्धि के लिए दूसरे पौधे से एक निर्दिष्ट दूरी आवश्यक है, बड़े पेड़ की छांव से भी बचाना होगा, उसे फलने-फूलने के लिए उचित पोषण और पर्याप्त सौर्य प्रकाश जो चाहिए। इसी तर्ज पर मनुष्य को बेहतर परवरिश और विकास के लिए कमोबेश उन्मुक्त, अबाधित वातावरण चाहिए। शैशव काल में विरासत में मिले संस्कारों के बाबत हम विवश होते हैं किंतु उम्र बढ़ने पर सुधी व्यक्ति विवेकपूर्ण पुनरीक्षा से अवांछित, नकारात्मक और अधोगामी पैत्रिक मूल्यों को तिलांजलि देने में समर्थ होता है। ‘मुझे घर-परिवार में अनुकूल वातावरण नहीं मिला’, यह दलील अपनी वर्तमान क्षमता को कमतर आंकने वाले की होती है। जीवन को सार्थक बनाने में अनुवांशिक संस्कारों से अधिक महत्व स्वनिर्मित संस्कारों का है। तीसरे संस्कार वे मुखौटे हैं जिन्हें हम लोक मर्यादा की अनुपालना में ओढ़ लेते हैं। शिष्टता, औपचारिकताओं और मर्यादाओं के आवरण में जीते व्यक्ति को अपने असल, दिव्य स्वरूप की मौजूदगी का अहसास नहीं रहता। इन तीनों संस्कारों की निष्पक्ष पड़ताल और अवांछित संस्कार निराकृत करने से ही सन्मार्ग का पथ प्रशस्त होगा।

बच्चे की जीवनरक्षक नौका बन कर उन्हें बचाने वाले अभिभावक बच्चे को निर्बल और पराश्रित बनाते हैं। जरूरत एक प्रकाशस्तंभ बन कर उसे स्वयं किनारे लगने का रास्ता सुझाने की है। तभी बच्चे की प्रगति की राह सुकर होगी।

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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री कॉलम में ‘‘निर्भरता छोड़ने पर ही जीवन सार्थक बन सकता है’’ शीर्षक से 23 अप्रैल 2021 को प्रकाशित। आनलाइन संस्करण का शीर्षकः ‘‘बच्चे के विकास के लिए माता-पिता को करनी होंगी अपनी ये हरकतें बंद’’, अखवार का लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/for-the-development-of-the-child-parents-will-have-to-stop-this-action-94461/

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