दुनिया में किसी को भूखे न सोना पड़े, इसकी धरती मां ने समुचित व्यवस्था कर रखी है। तो भी दुनिया के एक अरब (करीब 13.5% लोगों को दो जून रोटी इसलिए नसीब नहीं होती चूंकि अन्न खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। मिल-बांट कर खाएंगे तो जहां एक ओर सभी की गुजर-बसर चलेगी वही आपको पुण्य, दूसरों की दुआएं और संतुष्टि मिलेगी!
माना कि मनुष्य केवल भोजन के बूते जिंदा नहीं रह सकता, फिर भी संप्रति दुनिया के साढ़े तेरह प्रतिशत लोग दो जून खाने के लिए तरसते हैं। भरण पोषण के उद्देश्य से लोग अपने जमे जमाए घर छोड़ कर अन्यत्र बस गए, कुछ ने विदेशों का रुख किया। पाषाण युग से अब तक की मानव सभ्यता की कहानी भोजन की तलाश की कहानी है। नामी उपन्यासकार वर्जीनिया वूल्फ के शब्दों में, ‘‘ठीक से खाए बगैर ठीक से सो सकना या प्यार करना संभव नहीं।’’
भोजन के अधिकार को सभी समुदाय और राष्ट्र मनुष्य का मूलभूत अधिकार मानते हैं और इस आशय से नीतियां और योजनाएं बनाते हैं। इसके अलावा सभी पंथों में भूखे या आगंतुक को भोजन परोसना पुण्यकारी समझा जाता है। देश-विदेश में अनेक कारोबारी घराने, धर्मार्थ और स्वयंसेवी संस्थाएं नियमित रूप से भोजन वितरित करती हैं। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में चैबीसों घंटे भक्तों को प्रसाद यानी भोजन परोसने की प्रथा है। तमाम खाद्य नीतियों के परम लक्ष्य ‘‘सभी के लिए भोजन’’ से तात्पर्य है कि सभी के लिए निहायत जरूरी खाद्यान्न पर चंद वर्गों का वर्चस्व न रहे, यह सभी की पहुंच में हो। विगत माहों में कोरोना की आपदा ने सिखाया कि वैचारिक मतभेदों को ताक पर रख कर जरूरतमंदों को भोजन वितरित करना एक महान मानवीय कर्तव्य है। दिल खोल कर राजनैतिक व धार्मिक गुटों की अगुआई में निम्न आय के समूहों को खाद्यान्न सप्लाई से राहत दी गई।
अन्नदान की नेक भावना से अभिप्रेरित लगभग सभी बड़े शहरों में ऐसी संस्थाएं हैं जो होटलों या घरों से सही, बचाखुचा खाना इकठ्ठा करने के बाद इसे असहायों को वितरित करती हैं। कुछ संस्थाएं स्कूली बच्चों को टिफिन में एक अतिरिक्त रोटी लाने का आग्रह करती हैं जिन्हें जरूरतमंदों तक पहुंचाया जाता है। निजी स्तर पर अस्पतालों के बाहर गरीबों को भोजन वितरण के दृश्य भी आपने भी देखे होंगे।
यों विश्व में सैद्धांतिक स्तर पर खाद्यान्न की किल्लत वाली स्थिति नहीं बननी चाहिए चूंकि 2.76 अरब का उत्पादन 7.4 अरब की आबादी को खिलाने के लिए और अपने देश में 29.2 करोड़ टन सवा अरब के लिए कम नहीं है। फिर भी विश्व में करीब एक अरब व्यक्ति भूख, अल्प पोषण या कुपोषण की चपेट में हैं (इनमें 60 प्रतिशत महिलाएं हैं, 70 फीसद देहाती अंचलों के हैं) तो इसलिए कि उनके पास अन्न खरीदने के लिए पैसा नहीं है। खाद्य आपूर्ति का मुद्दा गरीबी से गहरे जुड़ा है, यही अधिकांश विकासशील देशों का स्याह पक्ष है। इस परिप्रेक्ष्य में प्रतिवर्ष 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस के आयोजक यूएनओ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ‘‘2030 तक शून्य भुखमरी’’ की मंशा का पूरा होना अत्यंत संदेहास्पद है। एफएओ की सलाह है कि खाद्यान्न को बर्बाद नहीं होने दें, कम संसाधनों से अधिक उत्पादन करें और सही आहार का सेवन करें। यह भी अनुशंसा है कि कैलोरी की आपूर्ति के लिए तीन फसलों धान, गेहूं और मक्का पर निर्भरता छोड़ कर ‘‘उन हजारों उपेक्षित खाद्यान्न किस्मों की ओर मुखातिब हों जो भविष्य के खानपान में क्रांति ला सकती हैं’’। बालसुरक्षा विशेषज्ञ मैरियन राइट एडल्मैन ने कहा, ‘‘भुखमरी और कुपोषण से बच्चों का पैदाइशी कम वजन का रहने, जन्मागत विकृतियां, मोटापा, मानसिक व शारीरिक विकार, निम्न शैक्षिक निष्पादन जैसे भयंकर दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं।’’
खाद्यान्न उत्पादन में बढ़त के लिए विदेशी मूल की उच्च संकर प्रजातियों को अपनाने में अनेक जोखिम हैं। शीध्र रोगग्रस्त होने की संभावना के अलावा इन प्रजातियों के लिए सिंथेटिक उर्वरक और अधिक सिंचाई आवश्यक होते हैं, ये मृदा की संरचना भी खराब कर सकती हैं। इन कारणों से इन्हें खुली मान्यता नहीं मिल रही है। विडंबना है कि पैदावार बढ़ाने की जुगतें गिनीचुनी अंतर्राष्ट्रीय शोधशालाओं के पास बेशक हैं किंतु जनहित में इन्हें इस्तेमाल किया जाना व्यवहार्य नहीं चूंकि क्रांतिकारी तकनीकों का खुलासा करने के एवज में उन्हें अथाह धनराशि चाहिए। अतः रास्ता यही बचा है कि खेती, भंडारण और वितरण की मौजूदा पद्धतियों को दक्ष बनाया जाए।
कुछ विशेषज्ञों की राय में विकास का मौजूदा माडल शहरोन्मुखी है। ‘अन्नदाता’ किसान बीमा, चिकित्सा सुविधाओं तथा अन्य लाभों से वंचित रखा जाता है। ये परिस्थितियां उसे औद्योगिक केंद्रों में मजदूरी के लिए विवश करती हैं। खाद्यान्न सप्लाई में अहम भूमिका किसानों की है जिन्हें शिकायत रहती है कि सरकारी अधिग्रहण मूल्य नाकाफी है। उनका कहना है, जिस अनुपात में अन्य सभी आइटमों के मूल्य में बढ़़त हुई है उपज के खरीदी मूल्य में उससे दसवां हिस्सा भी बढ़त नहीं की गई। नतीजन कुछ वर्षों से किसान आंदोलनों में इजाफा दिख रहा है। कुछ किसान पारंपरिक खेती से विमुख होने लगे हैं जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ नहीं है; संबद्ध विभागों को इस बाबत किसानों के साथ मिल-बैठ कर दोनों पक्षों को स्वीकार्य फार्मूला ईजाद करना होगा।
डेरी उद्योग से तुलना करें तो मदर डेरी और इसकी राज्य इकाइयों की मौजूदा दुग्ध संग्रहण व वितरण की सुचारु, अनुकरणीय व्यवस्था है। याद करें, अस्सी के दशक तक देश के सभी शहरों में दूध की मारामारी रहती थी, दिल्ली में तड़के तीन बजे से लोग लाइन में खड़े हो जाते थे। दूध की किल्लत वाले वे दिन बिसार दिए गए हैं। बड़ी डेरियों के अलावा छोटे पशुपालक भी एक दो लिटर अतिक्ति दूध भी नजदीकी कलेक्शन बूथ पर करीब 25 रुपए प्रति लिटर बेचने की सुविधा है। यही शासकीय व्यवस्था अन्य फसलों के लिए क्यों नहीं हो सकती। तीन वर्ष पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने खीज कर टमाटर सड़कों पर इसलिए बिछा दिए थे चूंकि मंडी में मिलने वाले मूल्य से ढुलाई का खर्च भी नहीं निकल रहा था। स्थानीय स्तर पर टमाटर प्रोसेसिंग संयत्र स्थापित हों तो किसान लाभान्वित होंगे।
कहावत है, ‘‘मुझे क्षमा करना भूख से व्यथित हो कर मैं अनर्गल बोल गया’’। भुखमरी से क्षुब्ध हो कर शस्त्र उठाने के अनेक प्रसंग विश्व इतिहास में मिलते हैं। एक आकलन के अनुसार बगावत के दमन के लिए बुलाई गई सेना में होने वाले खर्च के दसवें हिस्से से ही भुखमरी का समाधान निकाला जा सकता है।
खाने के हर कौर के पीछे किसान, थोक व्यापारी, शासकीय खाद्य वितरण व्यवस्था, खुदरा विक्रेता, इसे पकाने-परोसने वाले तक अनेक व्यक्तियों का योगदान है। खाद्यान्नों का अभाव न रहे इसीलिए धार्मिक अनुष्ठानों में देवी-देवताओं से अन्न भंडार भरपूर रहने की याचना की जाती है। ग्राही, संतोषी मुद्रा में भोजन के सेवन से हम न केवल उन सभी के प्रति आभार जताते हैं बल्कि अपने मन और पाचनतंत्र को भोजन अवशोषित करने के योग्य स्थिति में लाते हैं। इसी तर्ज में अन्न की बर्बादी अन्न उत्पादन और सप्लाई चेन में सभी की अवमानना, और नैतिक दृष्टि अपराध है। हमें सुलभ अन्न इसीलिए हैं कि मिल-बांट कर इनका सेवन किया जाए, इसकी सभी को निहायत जरूरत है।
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दैनिक नवज्योति में 16 अक्टूबर 2020 को ‘मिल बांट कर खाने के लिए हैं खाद्यान्न’ शीर्षक सेे प्रकाशित।
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