पहले कांग्रेस ने ‘एक देश एक चुनाव’ चलाया। अब बीजेपी वही करने पर तुली है। मंशा वही है। कैसे भी सत्ता हाथ से न फिसले। दूसरे पक्ष की नहीं सुनना समाज और देश के दूरवर्ती हित में नहीं है।
भारत सरीखा वैविध्यपूर्ण देश शायद ही अन्य कोई हो! यह वैविध्य ही दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र की अनूठी पहचान है। जलवायु, भौगोलिक स्वरूप तथा अन्य विभिन्नताओं के अनुरूप राज्यों के रीतिरिवाज, मान्यताओं, आस्थाओं और सोच में खासा फर्क है। इसीलिए भारत को कदाचित उपमहाद्वीप बोल देते हैं।
देश एक, रूप अनेक: जनजीवन में आचरण और व्यवहार एकसार पैटर्न नहीं है। के नमूने देखें। पैदल चलते आपका सौ रुपए का नोट रास्ते में अनायास गिर पड़े तो दूर से यह देखता वह नोट आपको थमाने एक व्यक्ति दौड़ कर आप तक पहुंचता है। दूसरी ओर इतनी ही रकम के लिए फंसाद होता है जिसमें हाथापाई बल्कि हत्या तक हो जाती है। धर्म-कर्म के भी सैकड़ों रूप हैं।
कुल मिला कर, देश की अभिलाषाएं, चिंताएं और सरोकार एक से नहीं हैं। लोकतांत्रिक तौरतरीके ऐसे होने चाहिएं कि प्रादेशिक सरोकारों की उपेक्षा न हो, उन्हें अपने बूते पनपने दिया जाए।
कानूनी अड़चनें: लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एकसाथ होने या न होने पर इन दिनों बहस गरमा रही है। एकसाथ चुनाव यानी ‘‘एक देश एक चुनाव’’ के हिमायती इस पद्धति की शुरुआत की अनदेखी करते हैं। वही घिसीपिटी दलीलें देते हैंः (1) केंद्र व राज्यों में अलग समय पर चुनावों से देश सदा चुनावी मुद्रा में रहता है, (2) बार-बार चुनावपत्रों की छपाई, सुरक्षाकर्मियों की तैनाती, आदि पर मोटी सार्वजनिक निधि बर्बाद होती है, (3) चुनाव संहिता लागू होने से विकास कार्य अवरुद्ध होते हैं, (4) केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव कराने से चुनाव आयोग को चुनाव संचालन व मानीटरिंग सहज रहता है, आदि। संवैधानिक तकाजा है कि राज्य सभा और राज्य के उच्च सदनों के चुनाव तय अवधि में हों। अतः ‘एक देश एक चुनाव’ की बात अधूरी ही सफल हो सकती है।
देश के पहले चार आम चुनावों के साथ राज्यों में चुनाव कराना इसलिए सुकर था चूंकि कांग्रेस दोनों जगह सत्ता में थी। 1969 में इंदिरा काल में पार्टी में अंदुरुनी मतभेद रोकने और मजबूती लाने की मंशा से आम चुनाव समयपूर्व क्या हुए कि टुकड़ों में केंद्र और राज्यों में चुनाव का सिलसिला शुरू हो गया।
सत्ताासीन और सत्ता से बाहर दोनों पक्ष जानते हैं कि एक साथ चुनाव सत्तासीन पार्टी के लिए लाभकर रहता है। 2014 में देश में प्रचंड बहुमत पाने से ही बीजेपी लगातार कोशिश में रही कि केंद्र और राज्य चुनाव एक साथ हों। इस प्रकरण में राज्यों, विशेषकर गैर-बीजेपी राज्यों तथा विपक्षी पार्टियों के साथ व्यापक मशविरा नहीं किया गया जो आवश्यक था। दूसरा, एक साथ चुनाव की अवधारणा बेल्जियम, दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन जैसे छोटे देशों के अनुकूल हो सकती है किंतु यह परंपरा अपने देश के लोकतांत्रिक, संघीय स्वरूप से मेल नहीं खाती।
‘‘एक देश एक चुनाव’’ के सिद्धांत को अमल में लाने में बहुत सी कानूनी अड़चनें हैं जिन्हें निराकृत करना दुष्कर है। लोकसभा की अवधि और इनके निरस्तीकरण संबंधी धाराओं 83(2), 85(2) में संशोधन; राष्ट्रपति और राज्यपाल की विधान सभा भंग करने की शक्तियों संबंधित धाराओं 83(1), 174(2) की पुनरीक्षा करनी होगी। राज्यों के अपने अधिनियम हैं, इनमें संशोधन में भी समय लगेगा। केंद्रीय स्तर पर संशोधनों के लिए धारा 368 के तहत दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत और विधान सभाओं में न्यूनतम आधे मतों से सहमति आवश्यक है, अतः एक साथ चुनाव की बात निकट भविष्य में व्यवहार्य न होगी।
सत्ता का नशा: सत्ता का नशा और इससे उपजा अहंकार, विशेषकर हमारे समाज में, आत्मनाशी होता है। जन कल्याणकारी मसलों से ना स्वाद चखने के बाद उससे दूरी बनाना विरलों के वश की होती है। सत्ताधारियों के हावभाव, मिजाज गजब के हो नीति राज्यों के अलहदा चुनाव से निर्वाचित स्थानीय नेता ज्वलंत आंचलिक मुद्दों के प्रति सचेत रहेंगे। पुनः सत्ता में आने की उत्कंठा उन्हें तटस्थ नहीं रहने देती, वे सक्रिय मुद्रा में रहने के लिए विवश होते हैं। इसके विपरीत एक साथ चुनाव में स्थानीय और आंचलिक मुद्दे दरकिनार हो जाने और तानाशाही प्रवृत्तियां हावी होने के आसार बनते हैं।
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यह आलेख दैनिक हिन्दुस्तान में (संपादकीय पेज, ‘एक देश-एक चुनाव’ विषय, अनुलोम-विलोम कॉलम) में 13 जनवरी 2024 को तनिक संक्षेप में ‘‘अलग अलग चुनाव से स्थानीयता बचेगी’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
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