वीरभोग्या वसुंधरा। विश्व की तमाम बेहतरीन सुविधाएं और वस्तुएं उन्हीं के लिए सुरक्षित हैं जो अपने कार्य में व्यस्त हैं, आरामपरस्तों के लिए नहीं।
कर्मवीर व्यक्ति जानता है कि किसी भी मशीन की भांति जिन अंगों-प्रत्यंगों या हुनरों को व्यवहार में नहीं लाया जाता उनकी कार्यशीलता क्षीण होते होते एक दिन ठप्प हो जाएगी। वह अपने मौजूदा बौद्धिक या कौशल के स्तर को अपनी नियति नहीं मान लेता, बल्कि निरंतर इसे परिष्कृत करने का प्रयास करता है। कार्य करते रहना उसका स्वभाव बन जाता है। कार्य निष्पादन से उसे वह आनंद मिलता है जिससे आरामपरस्त वंचित रहते हैं। इस प्रक्रिया में उसके हुनर में निखार आता है और लौकिक जगत में उसकी उपयोगिता और मांग रहती है।
मनोयोग से कार्य में व्यस्त रहने से उसे यह चिंता भी नहीं सताती कि कुछ व्यक्ति सदा उसमें बुराइयां, और उसके कार्य में त्रुटियां तलाशते हैं। वह इस नकारात्मक प्रवृत्ति में उलझेगा तो उसके कार्य बाधित हो जाएंगे। उसे ज्ञान होता है कि जिस अनुपात में कार्य संपादित किए जाएंगे, उसी अनुपात में दोषारोपण, छिद्रान्वेषण और शत्रुताएं बढ़ सकती हैं। बाह्य आलोचना और वैमनस्य से बचे रहने का एकमात्र उपाय है, बनी बनाई राह पर आंख मूंदे चलते रहें, कोई अभिनव, ठोस, सार्थक पहल न करें।
उसे आभास रहता है कि नए कार्य में जोखिम हैं और गलतियों की संभावना भी। इसके बावजूद अंदुरुनी लगन उसे पीछे नहीं हटने देती। सत्यनिष्ठा और सावधानी से निष्पादित कार्य में भी भूलचूक या त्रुटि रह सकती हैं। अहम यह है कि पहली भूल से सबक लेते हुए उसकी पुनरावृत्ति न हो। एक ही भूल बार-बार घटित होने का अर्थ है, कार्य अधूरे मन से किया गया। कार्य में जितनी लगन और निष्ठा होगी, परिणाम उतना ही परिष्कृत, निखरा, परिपूर्ण और जनप्रिय होगा।
एक भूल, त्रुटि या अपराध वह है जो अनायास, अनचाहे हो जाता है। दूसरे को सायास, योजनाबद्ध विधि से अंजाम दिया जाता है। दोनों की परिणति में वही अंतर है जो मंदिर या श्मशान से निकलते धुएं की प्रकृति में होता है। ऑपरेशन के दौरान डाक्टर जानबूझ कर कैंची गलत नहीं चलाएगा, हालांकि कभी गलत चल भी जाती है। रोगी नाजुक स्थिति में पहुंच जाए या बच न पाए तो रोगी के विषादग्रस्त या संकीर्णबुद्धि परिजनों के गले नहीं उतरता कि डाक्टर भी मनुष्य है, उससे गलती हो सकती है।
कार्य के लिए समर्पित कर्मवीर कदाचित अभद्र या आपत्तिजनक आचरण कर बैठे तो वह आत्मग्लानि और पश्चाताप की अग्नि में सुलगने लगेगा। वह अपने अनुचित व्यवहार को तर्कसंगत और उचित ठहराने की चेष्टा नहीं करेगा, उसे तो संशोधन से स्वयं को बेहतर बनाते रहना है। जिसके प्रति उससे अन्याय हुआ, उसके समक्ष करुणा, विनय और नम्रता से प्रस्तुत होगा। प्राकृतिक विधान के अनुकूल उसका मृदु, सुलहपरक और सहयोगी स्वभाव उसे अनेक भावी दुविधाओं और कठिनाइयों से सुरक्षा कवच प्रदान करता है। इसके विपरीत अकर्मण्य, निर्लज्ज व्यक्ति तब तक अपने कृत्य को सही ठहराएगा जब तक वह चहुतरफा घिर नहीं जाता। इस प्रक्रिया में वह कर्मवीरों को मिलने वाली संतुष्टि और शांति से वंचित रहता है।
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इस आलेख का संक्षिप्त प्रारूप दैनिक जागरण के ऊर्जा कॉलम में 12 अगस्त 2021, बृहस्पतिवार को प्रकाशित हुआ।
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