काल चक्र पर विचार

काल चक्र में नए-पुराने के मायने नहीं होते, यह अतीत-वर्तमान-भविष्य की त्रिपक्षीय किंतु एकल, अनवरत अस्मिता है। काल की परिकल्पना एक चक्र के रूप में की गई है जो क्रमशः आगे की ओर घूमता रहता है, और कभी पूर्व अवस्था में नहीं लौटता। इस चक्र की धुरी वर्तमान है जिसके एक छोर पर अतीत है तो दूसरे पर भविष्य। “एक नदी में दो बार नहीं नहाया जा सकता” से आशय है कि गुजर चुकी परिस्थिति हूबहू उसी रूप में पुनः नहीं आएगी चूंकि काल चक्र को आगे बढ़ते रहना है। जिस भाव मुद्रा में हम एकबारगी स्नान किए थे, वह क्षण और उस जल का स्वरूप मिन्न थे। उद्भव होते रहने यानी जीवंतता की शर्त है परिवर्तनशीलता, जो सृष्टि को चलायमान रखती है। इस तथ्य को हृदयंगम न करते हुए जो अतीत में जकड़ा रहेगा वह अपनी प्रगति अवरुद्ध करेगा तथा अपने परिवेश में नैराश्यपूर्ण, जीवन-विरोधी भाव संचारित-प्रसारित करेगा। चराचर जगत में स्थितियां-परिस्थितियां स्थाई नहीं रहतीं, इन्हें बदलना ही है। स्थाई है तो मनुष्य का दिव्य स्वरूप, जिसे अपने मूल स्थान यानी परम शक्ति में समा जाना है। नष्ट तो उसका पंचतत्वीय स्थूल रूप भी नहीं रहता, देहावसान के बाद ऐहिक स्वरूप के अंश मृदा, वायु, जल आदि में विलय हो जाते हैं।

प्रकृति का विधान है, एकबारगी जीवन में ढ़ाल लिए गए व्यवहार और सोच में निरंतर संवृद्धि होती रहेगी। हृदय में तिरस्कार, विद्वेष, घृणा, प्रतिशोध या दूसरी श्रेणी के प्रेम, सौहार्द, दया, जिन भी भावों को संजोते और सिंचित करेंगे, वही भाव कालांतर में गहराते रहेंगे। तो भी, अपनाई गई जीवनशैली में त्रुटियां देख सकने और संशोधन के लिए प्रतिबद्ध और सहर्ष तत्पर सुधी जन सायास, अथक प्रयास से जीवन को नई दिशा दे डालते हैं। वर्तमान को अतीत से हेय मानने वाले या सदा सुनहरे भविष्य के खयालों में मग्न रहने वाले वर्तमान सुखों से वंचित रहेंगे। समय की परिवर्तनशीलता को समझने वाला सुधी जन विश्वस्त रहता है कि जब वे दिन न रहे तो ये दिन भी न रहेंगे। जीवन के प्रत्येक क्षण का आस्वादन लेना उसका स्वभाव होता है, वह जानता है कि जो भी है बस वर्तमान का पल है। कल कुछ नहीं होगा, वह आएगा ही नहीं। यह प्रवृत्ति जीवन में अनायास पसर जाने वाली नीरसता और नैराश्य को निरस्त करती है, उसके जीवन को बोझिल नहीं बनने देती। आशा और प्रफुल्लता से सराबोर, वह सार्थक जीवन बिताने में समर्थ रहता है। काल प्रवाह पर विचार करते हुए सुधी जन जीवन में अनिवार्यतः आतीं उलझनों और समस्याओं के समक्ष घुटने नहीं टेक देता। उसे पता रहता है कि उसके बड़प्पन का दारोमदार उसकी विफलताओं पर नहीं बल्कि उसके पुनः पुनः उठने के साहस और जुझारुपन पर निर्भर है।

………………………………………………………………………………………………
दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ के ऊर्जा स्तंभ में 2 जनवरी 2020 को प्रकाशित।
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top