नाम के पीछे पगलाने वालों की कमी नहीं, एक ढूंडोगे दस मिलेंगे, दूर ढूंडोगे पास मिलेंगे। नाम के बदले काम पर ध्यान रहने की फितरत बन जाए तो व्यक्ति की दुनिया रंगीन और आनंदमय हो जाएगी। मजे की बात, तब नाम स्वतः ही मिल जाएगा।
जब नाम रखने का लमहा आता है, चाहे नवजात बच्चे का, रिहाइशी मकान या आफिस बिल्डिंग का, तो तर्क-वितर्क खूब चलते हैं। खेल परिसरों, गलियों-सड़कों, उद्यानों, नगरों-उपनगरों का नाम रखना सरकारी बैठकों का खास मुद्दा रहता है जिसमें उच्चतम अधिकारी तक शामिल होते हैं। ऐसी बहसों में सभी के पास खुल कर बोलने के लिए कुछ होता है। नामकरण के लिए बहुधा अलहदा समिति भी गठित कर दी जाती है।
घर आए नन्हें के नाम के बाबत घर में सभी को कौतुहल रहता है, महिलाओं के लिए तो यह बहुदिवसीय प्रोजेक्ट बन जाता है। कुछेक एडवांस में मशक्कत से लड़का और लड़की दोनों नामों की सूची तैयार रखते हैं। बेहतरीन नाम के लिए पहले शब्दकोष की मदद लेते थे, अब गूगल खंगाला जाता है, एक अदद प्यारा, अर्थभरा, बोलने में सहज, नए से शब्द की खोज में, युनीक हो तो सुहान अल्लाह।
सुन रहे हैं, बहुतेरों ने लाकडाउन के दौर में बच्चों के नाम ‘‘कोरोना प्रसाद’’, ‘‘कोविडा कुमारी’’ या इनसे मिलते-जुलते रखे हैं। करोड़पति, धनपत, संपतिदेवी, लक्ष्मीकुमारी नामक कुछ शख्स दाने-दाने को मोहताज हैं। एक शांति प्रसाद हैं, जिनके सातवें आसमान के गुस्से से सभी थरथराते रहे हैं; गरीबदास या दीनानाथ नामक धन्ना सेठ भी आपको अपने इर्दगिर्द मिलेंगे। तो भी सटीक नाम की कोशिशें नहीं थमतीं, ‘‘यतो नाम ततो गुणः’’, जैसी उक्ति पर भरोसा जो है।
आपसे क्या छिपाना, पैंतीस वर्ष पूर्व मैं स्वयं अपनी संतान के लिए नायाब से नाम की चाहत का शिकार हुआ। अपने समाज की रीति को ताक पर रख कर अपने जन्मस्थान के निकटतम, हिल स्टेशननुमा कस्बे के नाम पर बेटी का नाम रख दिया, सिलोगी। दो वर्ष बाद बेटे की बारी आई तो उस सदाबहार घास का नाम तलाशा और बहुतेरों से उस घास के बाबत पूछताछ की जो सभी ऋतुओं में फलती-फूलती है, बाहरी परिवेश से इसकी वृद्धि पर नगण्य प्रभाव पड़ता है। आखिर मिल ही गया, ‘‘जवास’’, जिसका उल्लेख रामचरितमानस में बताया गया। नाम तो रख लिया, फिर रामचरितमानस पढ़ डाली, इसमें तीन स्थानों पर जवास का उल्लेख पाया।
स्वयं में निरंतर निखार लाते रहने से बेहतरीन व्यक्ति बन कर कोई अपने और अपने कुनबे का नाम रौशन करता है तो कोई कुकर्मों से अपने सुंदर नाम को दागी बना डालेगा और परिवार की लुटिया डुबो देता है। यदि अपने कर्म सुविचार और परहित भाव से प्रेरित होंगे तो अपना जीवन बेहतर होगा ही, नाम की सार्थकता कायम रहेगी। नाम भर सुंदर होने से कोई व्यक्ति, अखवार, पत्रिका या वाणिज्यिक कंपनी प्रगतिशील नहीं हो जाती; इसके लिए व्यक्ति या कार्मिकों को सायास लगन और निष्ठा से कार्य करते रहने होंगे। शानदार नाम वाली हस्तियां और नामी कंपनियों की धराशाही हो जाने के किस्से हम देखते-सुनते आए हैं। नामी संगठन के कार्मिक अनुचित, आपत्तिजनक व्यवहार और अनैतिक आचरण में संलिप्त होंगे तो एकबारगी बुलंदियों पर रही संस्थाओं की साख गिरने में वक्त नहीं लगता।
केवल नाम काफी नहीं। प्रभु का नाम लेते लेते मायावी दुनिया से पार जाने के अनेक प्रसंग हैं। शरीर छूट जाता है, कंपनियां बंद हो जाती हैं, नाम रह जाता है। इसीलिए नाम की खातिर झमेले, फंसाद, मनमुटाव और जद्दोजहद चलती रहती हैं। मंदिर की हर सीढ़ी पर, प्याऊ के द्वार पर, शासकीय या अन्य संस्थाओं के भवनों के प्रमुख स्थलों पर ‘‘स्वर्गीय फलां राम’’ या ‘‘अमुक देवी’’ की पावन स्मृति में दान स्वरूप – ऐसा उल्लेख मिलता है। मंदिर की एक सीढ़ी के निर्माण के लिए अमुक राशि दान के एवज में दाता को नाम चाहिए! दुहाई है ऐसी सोच को।
शादी-ब्याह की गंगा में समूचा खर्च आप उठाएंगे किंतु ऊंची नाक वाले सगे घराती का नाम निमंत्रण कार्ड में नीचे दर्शनाभिलाषियों की सूची में नहीं होने से उन्हें भारी पीड़ा हो जाती है। विवाह मांगलिक कार्य है, इसमें ठोस योगदान दे कर आप न केवल अंतरंग संबंध पुख्ता करते बल्कि एक अच्छे व्यवहार का परिचय देते हैं।
हर किसी को नाम की भूख है। बैंड कंपनी को हर बड़े ढ़ोल के बीच नाम चाहिए तो जैनरेटर वाले को भी, विवाह पंडाल के द्वार पर जितने बड़े अक्षरों में वर-वधू का नाम है उतना ही बड़ा लिखा टेंटवाले को अपना नाम चाहिए। कार्ड छापने वाला मुद्रक भी इस भूख से अछूता नहीं। कुछ उसी तर्ज पर शासकीय या कार्पोरेट रिपोर्टों के शुरुआती पन्ने में नाम के उल्लेख पर गहमागहमी सर्वविदित है।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्पति हैरी ट्रूमैन ने कहा, क्रेडिट यानी श्रेय की परवाह किए बगैर कार्य करने से मिलने वाले शानदार परिणामों से आम चक्कर में पड़ जाएंगे। यदि हम ऐसी वृत्ति बना लें तो जीवन सफल और आनंदमय हो जाएगा।
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