जो नाम या वाहवाही के पीछे दौड़ते रहे उनके कार्य सही से नहीं निबटे, न ही उनका नाम हुआ। बल्कि जीवन की संध्या में उन्हें हताशा ही हाथ लगी। वाहवाहियां क्या हैं –कार्य पर ध्यान रखने का स्वाभाविक प्रतिफल।
पहले प्रयास में, अधपकी-अधजली रोटियां बना कर आपकी नन्हीं चाहती है कि उसकी तारीफ की जाए। छोटा स्कूली बच्चा भी कागज पर आड़ी-तिरछी आकृतियां बना कर शाबाशी चाहता है। कच्ची उम्र की इन अपेक्षाओं को आपत्तिजनक या अनुचित नहीं ठहरा सकते, उन्हें खुला समर्थन देना बनता है। किंतु ढ़लती उम्र तक भी, फेसबुक प्रोफाइल अपडेट के नाम पर उल्टी जैकेट या तिरछी टोपी वाली पोस्ट पर क्या कहेंगे? यही न, कि आपकी संतुष्टि और खुशियों का दारोमदार हवाई ‘लाइक्स’ और वाहवाहियों पर टिका है!
बेशक जीने के लिए अपनों और दूसरों की मान्यता और उनसे स्वीकारोक्ति चाहिए कि हमने इतने वर्ष भाड़ नहीं झोंकी। समस्या तब होती है जब यह भ्रांति घर जाए कि सबसे बेहतर मैं ही रहा, और दूसरों की अच्छाइयां दिखना बंद हो जाएं। तिस पर ख्वाहिश कि सब की जुबां में केवल आपका नाम छाया रहे। ऐसा अहंकारी बरई नाम योगदान के एवज में दस्तावेज के आभार पेज में नाम का उल्लेख न होने पर घमासान पर उतर आएगा।
प्रशंसा की भूख
प्रशंसा की चाहत सांसारिक कष्टों का मूल है। इसकी चरम स्थिति आत्ममुग्धता गंभीर मानसिक विकृति है, जिसका उपचार जरूरी है। गीता कहती है, प्रतिफल की इच्छा बिना अपने कर्तव्य में चित्त लगाएं। चित्त कार्य पर रहेगा तो नाम की इच्छा ही न रहेगी। चित्त कार्य पर रहे या प्रतिफल पर, यह चयन अहम है चूंकि दोनों की विपरीत परिणतियां हैं। मोटे तौर पर मनुष्यों के दो प्रकार हैंः कार्य करने वाले, और श्रेय बटोरने वाले। पहली श्रेणी में सीमित व्यक्ति हैं किंतु वे कर्मठ, अपेक्षाकृत संतुष्ट, आत्मविश्वासी और भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं। अधिसंख्य दूसरी श्रेणी में हैं, वे भीतर से क्षीण और भविष्य के प्रति आशंकित। नाम-प्रसिद्धि की चूहादौड़ के खिलाड़ियों के बाबत मार्क ट्वेन की कही समझ लें तो उनकी दुनिया बदल जाए, ‘‘श्रेय की परवाह किए बिना कार्यरत रहने वाले को महान उपलब्धियां हासिल होती हैं।’’ जो नाम के पीछे दौड़ते रहे उन्हें अंत में न नाम मिला, न संतुष्टि। स्वामी विवेकानंद ने कहा कि प्रशंसा की इच्छाएं मनुष्य को अनिवार्यतः दुर्गति की ओर ले जाती हैं।
प्रशस्तियां बड़प्पन का पैमाना नहीं हैं
व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके कार्यों से बनती है, जो प्रदर्शित किया जाए उससे नहीं। शोकेस में सजे मैडल, पुरस्कार, शील्ड व प्रशस्तिपत्र व्यक्ति की गरिमा का पैमाना नहीं होते, ये जोड़तोड़ से भी हासिल कर लिए जाते हैं। इनमें कुछ, मात्र कंपनी में दीर्घकाल तक सेवारत रहने या ऑनलाइन गोष्ठी, काव्यपाठ आदि में उपस्थिति जैसे उथले आधारों पर वितरित किए जाते हैं। इसके विपरीत निष्ठा और मनोयोग से निष्पादित कार्य स्वयं बोलता है, उनका ढ़ोल नहीं पीटना पड़ता न ही साक्ष्य जुटाने पड़ते हैं। निस्स्वार्थ भाव से संपन्न कार्य आनंद देता है। लुत्फ व्यसन से भी मिलता है किंतु इसका परिणाम दुखद होता है; यह न उच्च श्रेणी का होता है, न पाक। परहित से निष्पादित कार्य की परिणति अंत तक सुखद रहती है। स्वार्थ भाव से प्रेरित जन इस अमृतरस से वंचित रहते हैं। आदि संस्कृतियां विचार प्रधान थीं, व्यक्तिपरक नहीं। आराध्य रचना या कला थी, सृर्जनकर्ता का नाम नहीं। धर्मग्रंथों, अन्य साहित्य, कलाकृतियों तथा लोकगीतों में रचेता का उल्लेख न होने से अटकलें लगाई जाती रहीं, विवाद भी रहे।
वह अपने ही प्रति बेईमान है जो मेहमान की थाली में तभी घी टपकाता है जब मेहमान की निगाहें थाली पर हों, अन्यथा हाथ खींच लेगा। यह वही वर्ग है जिसे मंदिर की एक सीढ़ी का खर्च उठाने पर भी नाम चाहिए। कार्य भलीभांति पूर्ण होने पर श्रेय का दावा करने और चूक होने पर दोष दूसरे पर मढ़ने वाला जीवन में प्रगति करने में अक्षम होता है। नाम, प्रसिद्धि, या श्रेय के लिए प्रतिस्पर्धा क्षुद्र सोच दर्शाती है। जहां बोया नहीं, वहां फसल काटने की चेष्टा प्राकृतिक विधान का उल्लंघन है और इसीलिए दंडनीय भी। दूसरी बात, जैसा ब्रायन ट्रेसी ने कहा, जितना श्रेय हम दूसरों को देते हैं वही लौट कर मिलता है और अंततः श्रेय का पात्र वही होता है जो दूसरों को श्रेय देता है।
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यह आलेख तनिक परिवर्तित रूप में ‘जिनका मन काम में नहीं रमता, वही तारीफ चाहते हैं’ शीर्षक से 8 अगस्त 2023, मंगलवार के नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री कॉलम (संपादकीय पेज) में प्रकाशित हुआ; अखवार के ऑनलाइन संस्करण का शीर्षक – ‘काम के बदले तारीफ की इच्छा हमें कमजोर बनाती है’; लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/speaking-tree/life-motivational-lesson-how-to-be-happy-the-desire-for-praise-in-exchange-for-work-makes-us-weak/articleshow/102523081.cms…. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. ….
Bahut Sahi.
नाम की भूख कमोबेश सब को होती है। यह जन्मजात है, मनुष्य का स्वाभाविक अवगुण है। हरीशजी ने ठीक लिखा कि नाम पाने के चक्कर में हम अपना काम करने का स्वाभाविक गुण छोड़ कर कहीं के नहीं रह जाते।
निरंतर सर झुका कर अपना काम करते रह कर व्यक्ति अपना जीवन संवारता-सुधारता है।