मनुष्य निपट एकाकी जीव है, और सामुदायिक भी!

मनुष्य का असल स्वरूप क्या है?

उसका नितांत एकाकीपन या समूह की इकाई बतौर?  इतिहास बार-बार पुष्टि करता रहा है कि समाज को किसी भी क्षेत्र में जो सर्वोत्तम हासिल हुआ है वह किसी व्यक्ति की एकाकी सोच के बूते।

उस परमशक्ति का प्रतिरूप होने के नाते प्रत्येक मनुष्य को वह काबिलियत और शक्तियां कुदरती तौर पर मिली हैं जो उसके चहुमुखी विकास के लिए आवश्यक हैं, भले ही कस्तूरी मृग की भांति उस दिव्य शक्ति का अहसास न हो। दूसरा, दुनिया के सवा सात अरब लोगों में उसकी अलहदा पहचान है। प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक-रासायनिक (बायोकैमिकल) संरचना अनूठी है, जैसे उसकी पुतलियां या उंगलियों की छाप किसी अन्य से मेल नहीं खातीं। वह स्वयं में कमोबेश परिपूर्ण अस्मिता है। एक स्वतंत्र शरीर और स्वतंत्र मस्तिष्क लिए वह अकेला दुनिया में आया है; जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि ही जीवन है और अंततः अकेले ही एक दिन उसे यहां से कूच करना है। दिल्ली के निगम बोध घाट के प्रवेश द्वार पर लिखा है, ‘‘मुझे यहां तक पहुंचाने का शुक्रिया, आगे मुझे अकेला ही जाना है।’’

प्रत्येक मनुष्य को एकल इकाई बतौर, कमोबेश परिपूर्ण इसलिए बनाया गया है ताकि वह हाथ-पांव चलाते हुए, अपने मन-बुद्धि का इष्टतम उपयोग करे और सार्थक, संतुष्टिदाई, आनंदमय जीवन यापन करने में समर्थ बने। दुर्भाग्य यह है कि अधिसंख्य व्यक्तियों में जिंदगी को एक बेहतरीन बनाने की ललक नहीं उठती और आज के आराम, चैन के खातिर वे अपने ‘‘कम्फर्ट जोन’’ से बाहर छलांग लगाने का साहस नहीं जुटाते। नतीजन मौजूदा हालातों में डूबे रहना उनकी नियति तय हो जाती है।

याद रहे, भीतरी खालीपन की वजह से अधिकांश लोगों को एकाकीपन भारी पड़ता है। इन्होंने जो भी काम किया, जो पहना, जैसा व्यवहार किया, वह उचित था इसके सत्यापन के लिए दूसरों की स्वीकृति चाहिए, फेसबुक पर ‘‘लाइक्स’’ न मिलने से इनके प्राण सूख जाते हैं। दूसरों की मुहर लगे बगैर इनका जीवन दुष्कर हो जाएगा। अपने सरीखे हवाई मिजाज के अन्य साथियों से सतही मेलजोल कर, एक एक दूसरे के लाइक्स बटोरते-बटोरते वे तब तक प्रसन्न रहते हैं जब तक जीवन की सच्चाइयों से नहीं जूझना पड़ता। मूलतः भीड़तंत्र के लोग अकेले चलने में अक्षम हैं। उनके पीछे चलेंगे जिनमें अकेले चलने का माद्दा, और हौसले होते हैं।

भीड़तंत्र कुछ बंधी-बंधाई आंकाक्षाओं को मान्यता देता है – शासकीय, सामाजिक या किसी अन्य व्यवस्था में उच्च पद, लोकप्रियता, वाहवाही और धन-संपति, चाहे इन्हें बल, छल, तिकड़म या रुतबे के बूते हासिल करना पड़े। पारंपरिक मूल्यों, प्रथाओं के एवज में नैतिकता और शिष्टाचार आदि के जिस नवाचार की धीमे धीमे प्रतिष्ठा की जा रही है और जिस कदर अपनी अस्मिता को ताक पर रखा जाने लगा है, यह सब गले न उतार सकने वाले समाज के एक तबके ने स्वयं को मुख्यधारा से अलग थलग रखना बेहतर समझा है।

भीड़तंत्र का बोलबोला हो तो जो बहुमत बोले और चाहे, वही उचित है। भाव यह रहता है, ‘‘हम सभी में से कोई इतना बेहतर नहीं सोच-समझ सकता जितना हम सब मिल कर सोच-समझ सकते हैं’’।

बेशक संगठन में शक्ति होती है और मेल से अनेक वे कार्य संपन्न हो जाते हैं जिन्हे एकल स्तर पर अंजाम देना दुष्कर हो सकता है। बरट्रांड रसेल ने यहां तक कहा कि सहयोग से ही मानवजाति का उद्धार संभव है। किंतु स्मरण रहे, यह नियम मौलिक सोच वालों पर लागू नहीं होता। इस नियम की दूसरी शर्त है कि सहजीवों, सहकर्मियों के बीच सद्भाव हो, प्रतिस्पर्धा कदापि नहीं; और ऐसा विरले ही होता है। इसके विपरीत, जो व्यक्ति भीतर से पुख्ता होगा उसे अपनी सोच, अपने कार्य और निर्णयों पर संदेह नहीं होगा, औचित्य के लिए वह दूसरों का मुंह नहीं ताकेगा।

सच कड़वा होता है, खासकर यह सच कि परिवारजनों, संगी-साथियों और परिजनों के बावजूद अपनी यात्रा हर किसी को स्वयं तय करनी है। सबके मंसूबे और फितरतें अलग-अलग हैं, उसी हिसाब से व्यक्ति की यात्रा होती है। जिस परिवार या समाज में आप रहते हैं, जरूरी नहीं अन्य व्यक्ति आपकी यात्रा में सहभागी बनें या तनिक भी सहयोग दें। यह भी मुमकिन है आपके परिजन या साथी आपकी जीवनयात्रा को समझ ही नहीं पाएं, संभवतः समझना ही नहीं चाहें। आप कला, लेखन या कारोबार में शिखर तक पहुंचना चाहते हैं जिसके लिए एक निश्चित जीवनशैली अख्तियार करना जरूरी है। अपनी जीवनयात्रा के अनुकूल आपके तौरतरीकों से उन्हें लग सकता है कि आप उनके खेमे से जुदा हो चुके हैं, यह उनके लिए कष्टकारी हो सकता है; वे आपके प्रयासों को बाधित भी कर सकते हैं। इस कसकन में आपका एकाकीपन और गहरा जाएगा। उनके मानसिक उथलेपन पर तरस खाइए, उनसे घृणा न करें। आपके मार्ग में अड़चन डालने वालों के प्रति दुराव रखना आपके स्वास्थ्य के लिए उचित न होगा। आपको, चाहे अकेले ही, निरंतर बढ़ते रहना है। रबींद्र नाथ टैगोर की पंक्तियां हैं, यदि अन्य व्यक्ति उच्च लक्ष्य के प्रयासों में साथ नहीं देते तो चिंता नहीं करें, आप अविरल चलते रहें।

एकाकीपन शहरीकरण का एक अभिशाप है। पांच सौ साल पहले अंग्रेजी निबंधकार लार्ड बेकन ने लिखा था, ‘‘शहर जितना बड़ा होगा, वाशिंदों में उसी अनुपात में एकाकीपन होगा।’’ डिजीटल युग में लोगों की संवेदनाएं, उनके बोल मशीनी हो जाते हैं, पारस्परिक प्रेम और सद्भाव जरब हो जाता है। इसी दृष्टि से खलील जिब्रान ने कहा कि एक दूसरे से ज्यादा करीबी सुखी रहने के लिए ठीक नहीं (लैट देयर बि स्पेसिस इन आवर टुगेदरनेस)। वे यह भी कहते हैं कि सच्चे प्रेमियों के संबंधों की स्थिति रेल की उन पटरियों सरीखी होती है जो कभी नहीं मिलतीं। भाव यह है कि हर व्यक्ति आत्मा के एकाकी स्वरूप का स्वीकार करे।

एकाकी प्रयासों का चमत्कार

जब हेनरी फोर्ड ने कहा, साथ रहने से तरक्की होती है और साथ कार्य करने से कामयाबी मिलती है, उनका आशय यह नहीं था एकल सोच और कार्य निष्फल रहते हैं। दर असल उन्होंने अपनी एकल सोच के बूते कारोबार जगत को कामयाबी की मशाल दिखाई। अपनी डगर चलने का अर्थ अपने कृत्यों के लिए जिम्मेदारी लेना है। कार्यस्थलों में अहम मामलों में निजी निर्णय की अक्षमता यानी जिम्मेदारी से बचाव के लिए कमेटी बनाने की प्रथा है ताकि बाद में कहा जा सकता है कि फलां (अप्रिय) निर्णय तो कमेटी का है, मैं कुछ नहीं कर सकता, मजबूर हूं। याद रहे, जहां जिम्मेदारी समूह की होती है वहां किसी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं होती, निर्णय कमेटी का है तो किसी एक पर उंगली नहीं उठा सकते।

अपना सर्वोत्तम कोई तभी कर सकता है जब उसी पर छोड़ दिया जाए। तभी वह मनोयोग से अधिकतम योगदान दे सकेगा और बेहतरीन और समाज को बेहतरीन परिणाम सुलभ होंगे। मुगल काल में यदि कमेटी बना कर, कोटेशन के आधार पर निर्माण कार्य करवाए जाते तो ताजमहल सरीखी नायाब कलाकृति हमारे समक्ष न होती। अपने कौशल, विवेक और बुद्धि का इष्टतम उपयोग एकल स्तर पर ही संभव है।

…………………………………………………………………………..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top