लाकडाउन रहे या न रहे, व्यस्त रहेंगे तो फालतू के विचार नहीं आएंगे

 

लाकडाउन के मौजूदा दौर में बच्चे बेसब्र हैं, स्कूल कब खुलेंगे? मम्मी से मैडम ही भली। अनेक देशों में महिलाएं कौंसलरों के पास भारी संख्या में यह शिकायत ले कर आ रही हैं कि उनके पति उसकी मर्जी के खिलाफ ज्यादती और प्रताड़ना करते हैं। यदि जिंदगी में कोई एजेंडा होगा तो खालीपन की नौबत नहीं आएगी।

उस महकमे के कुछ कर्मचारी रोज कई बार चाय पीने, बल्कि इस बहाने गपशप करने देर-देर तक कैंटीन में या किसी सहकर्मी के साथ इधर-उधर की बतियाते रहते। फिर भी उन्हें वक्त भारी पड़ता था। उसी महकमे में ऐसे भी थे जो समूचे दिन कार्य में व्यस्त रहते। कोई आगंतुक आता तो भी उनकी निगाहें कार्य पर टिकी रहतीं।

कार्य तभी पूर्ण होंगे, वांछित परिणाम तभी मिलेगें, जब साधना से चरण-दर-चरण कार्य की बारीकियों में स्वयं को झोंक दिया जाएगा। अन्यथा सभी कार्य आधे-अधूरे रहेंगे। मंजिल उसी को मिलती है जो क्रम से पहले संकल्प लेगा, कार्य शुरू कर देगा, हुनर निखारते रहेगा, और निरंतर व्यस्त रहेगा। कालांतर में कार्यरत रहना उसकी प्रवृत्ति बन जाती है। कार्य से कतराना तो दूर, इसमें उसे आनंद आता है। उसके कार्य की क्वालिटी भी उम्दा होगी। इसीलिए कहते हैं, यदि आप कोई कार्य कुशलता से, और समय से संपन्न करवाना चाहें तो व्यस्त व्यक्ति को सौंपें। हाथ पर हाथ धरे व्यक्ति को काम देंगे तो वह उसे लटका देगा। व्यस्त रहने मात्र के कोई मायने नहीं हैं; कार्य की प्रकृति और दिशा अहम है, व्यस्त तो चींटियां भी रहती हैं। व्यस्तता उसी की सार्थक है जो तयशुदा लक्ष्य की दिशा में सुनियोजित विधि से आगे बढ़ता चले।

मनुष्य इस भ्रम में जीता है कि उसके पास पर्याप्त समय है और फलां काम फिर कभी हो जाएगा; वह समय कभी नहीं आता। ‘‘फलां काम मैं अगले अगले महीने किसी दिन कर दूंगा’’ से समझ लें कि वह कार्य नहीं होगा। समय से मूल्यवान अन्य कुछ नहीं। जिसने समय का सुप्रबंधन सीख लिया वह जग जीत गया। सही दिशा में कार्यरत व्यक्ति जानता है कि निरर्थक संवाद या गतिविधियां गंतव्य तक पहुंचने में बाधा पहुंचाते हैं, अतः वह इनमें नहीं उलझता। जो भी है, बस यही पल है और समय लौट कर नहीं आता, इस पर विचार करते हुए कर्मवीर कोई पल नष्ट नहीं करता। शांतिकुंज के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा ने कहा, ‘‘जिन्हें जीवन से प्रेम है वे समय व्यर्थ न गवांएं।’’

अपना समूचा समय दैनिक गतिविधियों में बिताने से वे महत्वपूर्ण कार्य उपेक्षित रह सकते हैं जो जीवन को दिशा प्रदान करते और सार्थक बनाते हैं। मौजूदा लाकडाउन के दौर ने अतिरिक्त अवसर दिया है कि सुदूर लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अविलंब ठोस शुरुआत कर दी जाए।

एकबारगी सुविचार से निश्चित कर लें, उन्हें क्या, और कितना चाहिए। फिर उस दिशा में निष्ठा से लग जाएं। कार्यरत व्यक्ति जानता है कि आज जो हम करेंगे उसी पर भविष्य का दारोमदार है। यही सोच उसे अकर्मण्य नहीं बनने देती। मार्ग में आने वाली बाधाओं का उसे अनुमान रहता है। उसे बोध रहता है कि काल प्रवाह में एक अप्रिय अध्याय का अर्थ खेल समाप्त होना नहीं है, चूंकि वह विश्वस्त रहता है कि वे दिन न रहे तो ये दिन भी न रहेंगे। व्यस्त रहने वाले का ध्यान स्वयं को निरंतर परिमार्जित करने में रहता है। उसे दूसरों की आलोचना करने या मीनमेख निकालने की या अप्रसन्न रहने की फुर्सत नहीं मिलती, वह नकारात्मक भावों से भी बचा रहता है।

व्यस्तता मनुष्य के मन या शरीर को जड़ नहीं होने देती, बल्कि उसे निरंतर परिष्कृत और विकसित करती रहती है। इसके विपरीत अकर्मण्य व्यक्ति सदा दूसरों पर ही नहीं, स्वयं अपने लिए भी बोझ रहता है, भले ही वह अति ज्ञानी और हुनरमंद हो। खलील जिब्रान ने कहा, उपयोग में आ रहे तनिक से ज्ञान का मूल्य किसी के काम नहीं आते ज्ञान के अथाह भंडार से कहीं ज्यादा है। अकर्मण्य व्यक्ति सार्थक व्यस्तता से स्वतः मिलने वाले आनंद से भी वंचित रहता है। खाली दिमाग शैतान का घर। एक विचारक के अनुसार अकर्मण्यता (कामचोरी) कुचेष्टा (शैतानी) की जननी है और कुचेष्टा ‘‘अकर्मण्यता के सूनेपन से निजात पाने की कोशिश’’ है।

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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री स्तंभ के तहत 30 अप्रैल 2020 को प्रकाशित।
लिंक, ई पेपर, टेक्स्ट फाइलः http://epaper.navbharattimes.com/details/107113-58256-2.html
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