स्वयं को सशक्त बनाने के आह्वान में स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘‘जीवन नाम है शक्ति का, निर्बलता मृत्यु की ओर ले जाती है’’; उनका आशय था जीवंतता और हौसले जीवन को जड़ नहीं होने देते, और इनके अभाव में जीवन बुझा, नीरस हो जाएगा। शक्तिसंपन्न व्यक्ति जीवनपथ में यदाकदा पसर जाती मुश्किलों और विडंबनाओं के समक्ष घुटने नहीं टेकता बल्कि उनसे निर्भीकतापूर्ण निबटता है।
व्यक्ति जितना अधिक सशक्त या समर्थ होगा, उसे दूसरों का सहयोग और समर्थन उसी अनुपात में मिलेगा, वह मनचाहा भी जल्द हासिल करेगा। इसके बावजूद शक्ति, संपन्नता, ख्याति, वर्चस्व या किसी व्यवस्था में शीर्ष स्थान पाना स्वयं में परम लक्ष्य नहीं हो सकते, ये सन्मार्ग से भटकाते लुभावने टीले हैं। इन्हें पाने के लिए प्रयासरत रहना उसी सीमा तक उचित है जब तक ये किसी वृहत्तर लक्ष्य की प्राप्ति का साधन बने रहते हैं। लौकिक शक्ति और सामर्थ्य को सर्वोपरि मानने वाले इन्हें पा कर इतराने लगते हैं। अहंकार में वे दूसरों को हेय आंकते हुए व स्वयं और प्रकृति से सुदूर हो जाते हैं।
एक कनिष्ठ वैज्ञानिक लैबोरेट्री के कार्य में इतना व्यस्त रहते कि उन्हें छुट्टी का पता न चलता। कालांतर में वरिष्ठ और फिर प्रमुख वैज्ञानिक हो गए तो मिजाज बदल गए। साधारण ब्रीफकेस हाथ में थामे ऑफिस जाने से सम्मान आहत होने लगा, उसे लेने चपड़ासी घर आता। विशाल, प्रसाधनयुक्त वातानुकूलित कमरे से बाहर निकलना अब उन्हें न सुहाता। विभाग को बेहतर दिशा प्रदान करने की बजाए उनका ध्यान अपनी छवि निखारने में रहता। विभाग के कर्मियों को अक्सर झिड़कते, ‘‘एक प्रमुख वैज्ञानिक आपसे पूछ रहे है, सोच-समझ कर बताइए’’, आदि। ऑफिस के ही नहीं, मोहल्ले, समाज के जो व्यक्ति उनकी उपस्थिति से न सहमे-ठिठके उनसे हिकारत से पेश आते; लालसा रहती, उनके दबदबे और प्रभाव के गुण गाए जाएं।
सच्चे ज्ञानी
अपने अज्ञान का पता रहने से सच्चे ज्ञानी को अपने ज्ञान पर गर्व नहीं होता। वैसे ही विज्ञान, साहित्य, कला, नौकरशाही आदि क्षेत्रों के सामर्थ्यपूर्ण हस्ताक्षर समुद्र की भांति शांत, अविचलित मिलेंगे, दूसरों के प्रति उदार और सहनशील। अपनी शक्तियों का उपयोग वे निजी वर्चस्व पुख्ता करने में नहीं बल्कि चुपचाप देश-समाज के हित में करेंगे। वे जानते हैं कि दूसरों को अपने प्रभावक्षेत्र में लाने से कहीं बेहतर उन्हें स्वतंत्र इकाई के तौर पर विकसित करना है। चाटुकारों, प्रशंसकों व अंधभक्तों को पास नहीं फटकने देते वे समान सोच वालों की तलाश में रहते हैं। दूसरे छोर पर, संसार को निर्जन वन या नदी किनारे एक पांव पर खड़े महीनों से तप में लीन साधकों-संतों की दरकार नहीं है।
अपनी शक्ति, सामर्थ्य या ओहदे के बूते दूसरों को प्रभावित करना, बेहतरीन वस्तुओं को अपनी बपौती समझना और निजी प्रभावक्षेत्र विस्तृत करना क्षुद्र मानसिकता और रिक्त अंतःकरण का परिचायक है। ऐसी फितरत वाला भले ही सम्मान मिलते रहने की खुशफहमी में रहें किंतु उसे तुष्टि नहीं मिलती क्योंकि वह जानता है कि सम्मान तो दिल से दिया जाता है। राॅबर्ट कोलियर कहते हैं, ‘‘मन में यह विचार न घरें कि बेहतरीन चीजें सदा आपके अधिकार में रहेंगी, इनका देनलेन चलाते रहना है; बीज के प्रवाह को अवरुद्ध न होने दें, इसे आरोपित करना है, नई कटाई करनी है। धन, संपदा़ को सीने से नहीं लगाएं, इसे प्रवाहमान रखने से आपको अन्य प्रकार की संपदा मिलेगी।’’
मानवीय हित के बदले निजी स्वार्थ के लिए शक्ति या सामर्थ्य प्रयुक्त करने वाला व्यक्तिगत निष्ठाएं जुटाता है, श्रेष्ठ नैतिक या मानवीय मूल्यों से उसे सरोकार नहीं रहता। इस संदर्भ में, अठ्ठाइस वर्ष पुराने, अनेक अखवारों में प्रकाशित एक विज्ञापन में नामी उद्योगपति एसएल किर्लोस्कर अपनी नन्ही पोती के साथ हैं। नीचे लिखा है, व्यक्तिगत निष्ठा एक आम बीमारी है। मैं नहीं चाहता कि मेरी नातन मेरे लिए निष्ठावान रहे! बेशक निष्ठाएं अच्छे जीवन के लिए आवश्यक हैं किंतु व्यक्तिविशेष के प्रति नहीं, उन शाश्वत मूल्यों के लिए जो मनुष्य के जीवन को रौशन रखते हैं; निष्ठाएं मेरे प्रति रहें तो मेरी मौत के बाद क्या वह अपनी निष्ठाएं अन्यत्र ले जाएगी?
भितरी प्रकाश पुंज की ओर मुखातिब रहें
कस्तूरी मृग की भांति अधिसंख्य व्यक्ति अपने भीतर निहित उस प्रकाशपुंज को नहीं पहचानते जो हमें परमशक्ति से जोड़ता है। भीतर के देवत्व को जानने वाला स्वयं को हेय नहीं समझ सकता तथा दूसरे के बाह्य प्रभाव के कारण उसे श्रेष्ठ नहीं मानेगा, न ही उसके प्रभाव में आएगा। प्रभावित होने का अर्थ है अपने मूल स्वभाव से विचलन, यह प्राकृतिक विधान के प्रतिकूल हैं। भीतरी शक्ति से अनभिज्ञ व्यक्ति सहज ही प्रभावशील व्यक्तियों का अनुसरण करने लगता है। इस बाबत सत्रहवीं सदी के जापानी विचारक मात्सुओ बाशो ने कहा, ‘‘सिद्ध व्यक्तियों के पदचिन्ह तलाशने के बजाए अपनी ऊर्जा उसे हासिल करने में लगाएं जो उन्होंने हासिल किया’’।
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