- थाॅमस कार्लाइल कहते थे, संगीत देवदूतों की वाणी है।
संगीत आदिकाल से विभिन्न संस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक अनुष्ठानों का अभिन्न अंग रहा है। अब त्यौहारों, शादियों व अन्य समारोहों की शोभा संगीत से है। यह गहरी निद्रा में सोये को झकझोर कर जगा देता है और अनिद्रा से बेचैन को सुला देता है। नटखटी, नखरे वाले बच्चे सदियों से माताओं की भावभीनी लोरियां सुन कर चैन से सोते रहे हैं। सर्दियों की रात में अग्नि के गिर्द नाच-गा कर दिनभर के पचड़ों, चिंताओं से राहत पाने की आदि काल से चली आ रही प्रथा बरकरार हैं। जर्मन-यहूदी लेखक बर्थोल्ड के शब्दों में, ‘‘संगीत आत्मा पर चढ़ी रोजमर्रा की धूल को साफ कर देता है’’।
संगीत का दैविक स्वरूप
संगीत की पीठासीन यूनानी देवी सेंट सेसिलिया पर रचित जॉन ड्रायडन की कविता की एक प्रश्नवाची पंक्ति है, ‘‘ऐसा कौन सा भाव है जिसे संगीत जाग्रत या शमित नहीं कर सकता?’’ धर्मगुरु और कथावाचक श्रोताओं को बांधने के लिए, नेता मतदाताओं को रिझाने के लिए, विक्रेता खरीदारों को पटाने के लिए और जादूगर भीड़ जुटाने के लिए संगीतमय फिजाएं निर्मित करते हैं। बैंड या अन्य वाद्ययंत्रों की झंकार सीमा पर तैनात सिपाहियों के दिलों में ऐसा जोश भरती हैं कि उनकी सुषुप्त शक्तियां प्रचंड हो कर शत्रु को शिकस्त देती हैं। संगीत की सुरलहरी जिस व्यक्ति को भावविभोर न करे उसे संवेदनशून्य कहना कहना अनुचित न होगा।
संगीत की अथाह, रहस्यमय शक्ति के पीछे संगीत का दैविक स्वरूप है। सृष्टि की उत्पत्ति की एक धारणा के अनुसार पृथ्वी का प्रादुर्भाव एक विशाल, सार्वभौम लयबद्ध अस्मिता से हुआ। अधिकांश हिंदू देवी-देवता हाथ में कोई वाद्ययंत्र थामे चित्रित किए गए हैं। भगवान कृष्ण के हाथ में बांसुरी, महादेव के पास डमरू, सरस्वती के हाथ में वीणा, आदि। इतना ही नहीं, अक्षरों-शब्दों की उत्पत्ति भी संगीत से हुई। किंवदंती है कि भगवान शिव ने भिन्न-भिन्न प्रकार से डमरू बजाया तो हर बार एक विशिष्ट ध्वनि उत्सर्जित हुई, उन ध्वनियों को गणों (सप्तर्षि) ने विशिष्ट आकृति बतौर दर्ज किया जो कालांतर में अक्षर बने, इन्हें जोड़ कर शब्द और फिर वाक्य निर्मित हुए। संगीत के दैविक स्वरूप को समझते हुए ही महान संगीतज्ञ बीथोवन ने कहा होगा, ‘‘वायुमंडल में व्याप्त कंपन प्रभु की सांसें हैं।’’
किन्हीं सुरलहरियों को सुन कर, बल्कि किरदारों की भावभंगिमा को देख कर पांव ठुमकने, और उंगलियां थिरकने लगती हैं तो इसलिए कि संगीत को हम कानों से नहीं, मांस-पेशियों से सुनते हैं, नीत्शे ऐसा मानते थे। संगीत के पुरजोर खिंचाव का रहस्य तर्क से परे है, प्रभु द्वारा प्रदत्त इस ‘‘सर्वश्रेष्ठ, आनंदप्रद तोहफे’’ का केवल अनुभव कर सकते हैं।
संगीत में लय, ताल और सुरलहरियों के जरिए चेतन, अवचेतन दोनों को अभिभूत करने की अदभुद क्षमता है। प्रेरक साहित्य के शीर्ष लेखक नेपोलियन हिल अपनी पुस्तक ‘यू कैन वर्क योर ओन मिरैकल्स’ (यानी आप भी चमत्कार कर सकते हैं) में संगीत का विचित्र, स्वयं आजमाया प्रयोग बताते हैं। उनके बच्चे के जन्म लेते ही डाक्टरों ने अशुभ समाचार दिया कि उसके कान ही नहीं हैं नतीजन व ताउम्र सुनने में अक्षम रहेगा। लेखक ने डाक्टरों को चुनौती दी – आप डाक्टर हैं पर मैं भी किसी क्षेत्र का डाक्टर हूं, और देखता हूं वह कैसे नहीं सुनेगा? लेखक ने सोते हुए बच्चे को रोजाना एक चुनींदा संगीत सुनाना आरंभ किया। लगातार मनभावन संगीत सुनते सुनते एक-दो प्रतिशत श्रवण क्षमता वाले बच्चे में संगीत के आस्वादन की अदम्य ललक पैदा हो गई और उसकी श्रवण क्षमता उत्तरोत्तर बढ़ती गई। तीन-चार माह बाद बच्चे की सुनने की शक्ति तीस प्रतिशत देख कर वही डाक्टर दंग रह गए और उन्होंने इसे मेडिकल साइंस का अजूबा माना।
नैराश्यपूर्ण और नकारात्मक खयालों को विस्थापित करने के पीछे संगीत का वैज्ञानिक स्वरूप है। संगीत सुनने से मस्तिष्क में एंडोर्फिन नामक रसायन सृजित होता है जो मन व चित्त को फील गुड यानी सुखद अहसास कराता है; यह शरीर को दुरस्त रखता है, इम्युनिटी बढ़ाता है। नतीजन व्यक्ति प्रसन्न रहता है, उसकी कार्यक्षमता उन्नत होती है। संगीत सुनने से दवाओं पर निर्भरता जरब होती है, नशों के प्रति आकर्षण घटता है, मानसिक बीमारियों तथा ऑटिज्म, सीजोफ्रेनिया के आसार कम होते हैं। संगीतमय गानों ने कोरोना काल में घरों में बंद परेशान, क्षुब्ध लोगों को खासी राहत प्रदान की। व्हाट्सऐप के जरिए फिल्मी गानों और शास्त्रीय संगीत का जम कर आदान प्रदान चला तथा एक सार्थक गतिविधि में लग कर उन्होंने कुछ पाया ही। वैज्ञानिक परीक्षणों में संगीत का मस्तिष्क पर वही सुखद प्रभाव देखा गया है जैसा नशे का। शास्त्रीय संगीत विशेषकर ध्यान केंद्रित करने में सहायक होता है। इसी के साथ याद रहे, संगीत के कुछ रूप वीभत्स, विध्वंसात्मक या नकारात्मक संवेंगों को जाग्रत करते हैं जिनसे बचाव आवश्यक है। पेशेवर संगीतकारों को इनकी पहचान होती है।
संप्रति विशेषकर शहरी इलाकों में संगीत प्रोफेशनलों द्वारा एकल प्रस्तुतियों का चलन बढ़ रहा है, लोग मात्र निष्क्रिय श्रोता बन कर रह जाते हैं, सहभागी नहीं। यही चलता रहे तो पहले ही लुप्त सी हो रही संगीत की बहुमूल्य विधा संरक्षित नहीं रहेगी। कोई विधा या प्रथा तभी जीवंत रहती है जब यह लोकजीवन से जुड़ी हो। संगीत के सामूहिक आयोजन होते रहेंगे, लोग इनमें सक्रिय सहभागी होंगे तो जनजीवन में पसरता सूनापन भी खत्म होगा, सामूहिक मेलजोल बढ़ेगा। शुक्र है कि ग्राम्य अंचलों में अभी सामूहिक संगीत प्रस्तुतियों चालू हैं।
सुरलहरियों में हताश व्यक्ति में आशा और उत्साह का संचार करने और चित्त को किसी भी दिशा में निदेशित करने की विस्मयकारी सामर्थ्य है। अपनी सम्मति है कि संगीत के भवसागर से भलीभांति चयनित सामग्रियों के आधार पर ऐसी पद्धतियां विकसित की जा सकती हैं जिनके उपयोग से इच्छुक या जरूरतमंद वर्ग को लाभान्वित किया जाए। इस दिशा में शोध समाज और शोधार्थी दोनों के लिए अत्यंत लाभकारी होंगे।
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