अपने आवास या कार्यस्थल के गिर्द भूमि को उजाड़ छोड़ देने से उसमें खरपतवार और अवांछित झाड़-झंकार स्वतः पैदा हो जाएंगे। मनचाही, बेहतरीन उपज चाहिए तो भूमि की समुचित तैयारी के बाद अच्छे बीज डालने होंगे, समय-समय पर खाद, सिंचाई और कीटनाशक का प्रयोग करना होगा। बीच-बीच में मुख्य फसल का पोषण हड़पने वाले अनावश्यक पौधों की काटछांट भी आवश्यक है। हमारे मस्तिष्क की भी यही स्थिति है। इसे कदाचित दुनिया के सर्वाधिक बंजर, अदोहित क्षेत्र की संज्ञा इसलिए दी जाती है चूंकि इसकी क्षमता का दसवां-बारहवां अंश ही प्रायः प्रयोग में लाया जाता है। इसीलिए कुछ विचारकों ने मन को दुनिया के सर्वाधिक बंजर, अदोहित क्षेत्र की संज्ञा दी गई है। और फिर, खतपतवार की भांति कदाचारी, नकारात्मक अस्मिताएं हमें उचित मार्ग से भटकाने, बहकाने का प्रयास करती हैं।
अभीष्ट की प्राप्ति के लिए पहले सुविचार से बीजस्वरूप खाका या स्वप्न रचना होगा। अगले चरण में उस स्वप्न को साकार करने के लिए आवश्यक ज्वाला यानी प्रचंड चाहत प्रज्वलित की जाएगी। यह सब अनायास नहीं होने वाला, समग्र प्रक्रिया में मन, शरीर और बुद्धि को अविरल अभ्यास करते रहना होगा। उत्कृष्ट परिणामों की आयोजना में अकर्मण्यता या संयोग की प्रतीक्षा के लिए स्थान नहीं रहता। साधारण इच्छा या आधे-अधूरे प्रयास का भी अर्थ नहीं। जीवन में कुछ ठोस, सार्थक अनायास नहीं मिलेगा, वांछित परिणामों के लिए निरंतर अथक प्रयास करने होंगे। मनोयोग से ऊर्जा संकेंद्रित होती है तथा मस्तिष्क के वे अंग-प्रत्यंग सक्रिय होते हैं जो अन्यथा नामालूम कब से सुषुप्त थे। तब जा कर ज्ञान-विज्ञान, कला, साहित्य की विधाओं में कालजयी कृतियों का प्रादुर्भाव होता है।
विभिन्न अनुष्ठानों में देवों के आह्वान की परिपाटी है। उनके लिए अनुकूल वातावरण निर्मित किया जाता है तो वे अपनी उपस्थिति से कृपाप्रार्थियों को कृतार्थ करते हैं, ऐसी मान्यता है। दैविक अस्मिताएं स्वयमेव कहीं जा कर प्रतिष्ठित नहीं हो जातीं, यह आचरण आसुरी शक्तियों का है। विधान है कि खाली या बंजर भूमि में अवांछित वनस्पति और बैठे-ठाले मन में नकारात्मक या विध्वंसकारी विचार स्वाभाविक तौर पर पनपने लगेंगे। मनोयोग से कर्मरत व्यक्ति की जीवनचर्या में ऐसा कुयोग नहीं आता। आशय है, मन अकर्मण्य मुद्रा में न रहे; नकारात्मकमता के प्रदूषण से बचाव के लिए इसमें सायास सकारात्मक विचार निरंतर डाले जाते रहें। स्मरण रहे, आसुरी अस्मिताएं सात्विक अस्मिताओं से कम सशक्त नहीं हैं।
मनोयोग से कार्य करते समय हमारे भौतिक या शारीरिक पक्ष की तुलना में आध्यात्मिक या दिव्य पक्ष अधिक सक्रिय रहता है। दैविक शक्तियां सहयोग देती हैं तथा कर्ता को श्रेष्ठ परिणाम मिलते हैं। मनोयोग की अवस्था के निर्माण में अनुशासन, निग्रह, धैर्य और संयम सहायक होते हैं, इसीलिए इन गुणों को हृदयंगम करने की संस्तुति की जाती है।
सायास, मनोयोग से कार्य करना एक प्रवृŸिा है, इसमें श्रम और समय लगने पर कर्ता को खीज नहीं होती बल्कि इस प्रक्रिया में उसे उस अपार, परालौकिक सुख मिलता है, इस अनुभूति से सरसरी तौर पर या अनमने कार्य करने वाले वंचित रहते हैं। मनोयोगी की दृष्टि उन जुगतों पर टिकी रहती है जिन्हें अपनाने से कार्यनिष्पादन अधिकाधिक परिष्कृत और त्रुटिरहित हो। अपने कार्य में वह व्यस्त रहता है, समय का बहुधा उसे अभाव रहता है। लक्ष्य साधने के लिए वह जोड़तोड़ या तिकड़म नहीं तलाशता। न ही वह फल के लिए उद्विग्न रहता है, इसीलिए परिणाम अनुकूल न रहने पर उसे दुख नहीं होता। अन्यों से उसकी अपेक्षाएं कमोबेश नहीं रहतीं। उस प्रतिफल की तो वह कल्पना भी नहीं करता जिसके लिए उसका योगदान नहीं रहा। उसका व्यवहार और आचरण सीधे या परोक्ष रूप से संतान और परिजनों को सन्मार्ग की ओर प्रशस्त रहने में सहायक होता है।
नामी पाकशास्त्री थाॅमस केलर की राय में, किसी व्यंजन को उम्दा बनाने के लिए भोजन तैयार करने वाला इसमें अपनी ‘आत्मा’ का अंश डालता है। तकनीकी कौशलों जैसे ड्राइविंग, कंप्यूटर आदि में भी अग्रणी वही रहे जो उस दौरान कुदाली से कदम-दर-कदम, दिन-रात मनोयोग से अपनी राह तैयार कर रहे थे जब उनके अन्य साथी लोकप्रिय टीवी, अन्य कार्यक्रमों, सैर सपाटे या मौजमस्ती में मशगूल थे।
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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग काॅलम के तहत ‘‘इसलिए सबसे बंजर क्षेत्र कहलाता है हमारा मस्तिष्क’’ 22 मई 2019 को प्रकाशित।
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