अपना हाथ जगन्नाथ। कोई आपका काम क्यों, और कितनी निष्ठा से करेगा। जिसने अपने हाथ-पांव छोड़ दिए वह दूसरे पर पराश्रित हो गया। और दूसरा आपकी कमजोरी को ताड़ कर झटका देगा तो कहां जाएंगे?
क्या बच्चा क्या बूढ़ा, महिला हो या पुरुष, कोई भी व्यवसाय हो, न भी हो, वक्त किसी के पास नहीं। वर्तमान जीवशैली की व्यस्तताओं, आपाधापी और देखादेखी में अपने हाथ से कार्य करना कुछ को कतई नहीं सुहाता। हाथ, उंगलियां, पावों को कम से कम चलाने की, शरीर को आरामतलब बनाने की प्रवृत्ति क्रमशः बढ़ रही है। आवागमन के लिए पैदल चलना या साइकिल मंजूर नहीं। शिक्षार्थियों को पेन-पेंसिल से लिखने के बदले स्क्रीन पर उंगलियां चलाना सहज लगता है। गैर-कामकाजी महिलाएं भी हाथ से चौका-चूल्हा, साफ-सफाई, कपड़े धोने से बचती हैं। हाथ-पांव सतत नहीं चलाने से पराश्रयता बढ़ती है। प्रकृति का विधान है कि शरीर के जिन अंगों-प्रत्यंगों का प्रयोग कम या नहीं करेंगे कालांतर में उनकी क्षमता क्षीण होती जाएगी। बरसों तक प्रयोग में नहीं लाए जाने के बाद कबाड़़ में बिकती सिलाई मशीन, मिक्सी, यहां तक कि मोटर साइकल शायद आपने देखी होगी।
बाह्य जगत को जानने-समझने में स्पर्श की अहम भूमिका है। पर्यावरण से सूचना एकत्रित करने के लिए हाथ में उच्च संवेदनशीलता का एंटीना, और हथेली में हजारों रिसेप्टर होते हैं। अमुक वस्तु कितना गर्म या ठंडी, सख्त या नरम, सूखी या गीली होगी, इस बोध के लिए उपकरणों पर निर्भरता न व्यवहार्य है न पूर्णतया भरोसेमंद। मशीन तो मशीन है, चूक भी सकती है। इन सबका बेहतर ज्ञान स्पर्श से होगा। हाथ से लिखने के दौरान, पूर्ण मनोयोग के कारण अध्ययन की बारीकियां मनस्पटल पर बैठ जाती हैं। याद करें, आरंभिक कक्षाओं में अशुद्ध लिखे शब्दों को पांच बार हाथ से लिखने के बाद उसमें पुनः गलती होने की संभावना नहीं रहती थी।
अब शिशु विशेषज्ञ मानने लगे हैं कि नवजात शिशु के शारीरिक ही नहीं, भावात्मक विकास के लिए मां के शारीरिक सानिध्य से बेहतर कुछ नहीं। स्तनपान से शिशु को केवल भौतिक पोषण नहीं बल्कि मानसिक और भावनात्मक खुराक भी मिलती है जो उसके समग्र विकास के लिए आवश्यक है। अतः इस प्रथा को पुरजोर वैश्विक स्वास्थ्य संस्थाओं का समर्थन मिल रहा है।
जिस इंजीनियर ने आरंभिक दौर में अपने हाथों से वर्कशाप में विभिन्न कल-पुर्जों को झाड़ते-पोंछते उनका मुआयना किया और जगह पर फिट किया, उसी ने आगे जा कर उच्च कीर्तिमान प्रस्तुत किए; यही अन्य विधाओं के कर्मियों के साथ रहा। अनेक व्याधियां हाथ के स्पर्श से, हिलाडुला या दबा कर बेहतर समझ में आती हैं। बड़ी आंत की कुछ विकृतियां मलद्वार में उंगली डाल कर जांच से सहज पकड़ में आती हैं, किंतु चिकित्सक इस घिनौने उपाय से कतराते हैं। इसी आशय से चिकित्सा विज्ञान के एक दिग्गज ने इस घिनौनी किंतु अत्यावश्यक प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए लताड़ और व्यंग्य में लिखा, ‘‘वहां उंगली डालने में यदि तुम्हें ऐतराज है तो अपना पांव डाल दीजिए।’’
वही भोजन ऊर्जा से परिपूर्ण होगा जिसे ग्रहणकर्ता को खिलाने की सदाशयता स्वयं पकाया जाए और जिसे अपने हाथ से खाया जाए। ऐसे अन्न का कण-कण शरीर में भलीभांति अवशोषित हो कर यथेष्ट ऊर्जा देता है। इसके अतिरिक्त, कम मात्रा से भी तृप्ति हो जाएगी। एक नामी पाकशास्त्री की राय में, जब पकाने वाला अपनी आत्मा का अंश खाने में मिश्रित करता है तभी वह लजीज बनता है। जिस व्यक्ति को भरपेट न मिलता हो, या जो अपने परिवार को उस गुणवत्ता का भोजन नहीं खिला सकता जो आपके लिए बना रहा है, क्या वह निष्ठा से भोजन बनाएगा। कुछ अहम प्रश्न विचारणीय हैं; जो स्वयं अपने लिए भोजन नहीं बना सकता, क्या उसे भोजन का अधिकार होना चाहिए? दूसरा – आपकी कोताही के कारण जिन खास वर्गों के व्यक्ति शहरी रसोइयों में कमोबेश आधिपत्य कर चुके हैं, इसके क्या परिणाम होंगे। क्या बढ़ती उम्र में अपने हाथ से अपने लायक भोजन पकाने, अपने कपड़े धोने जैसे आवश्यक कार्य स्वयं निपटाने में अक्षम हो कर जोखिमभरी जिंदगी का रुख तो नहीं कर रहे?
हथेली में विष्णु भगवान का वास माना गया है, इसीलिए सुबह उठते ही दोनों हथेलियों को देखने की परिपाटी रही है। हाथ के महत्व को समझने और इसके भरपूर इस्तेमाल से पराश्रयता से बचने के अतिरिक्त हम स्पर्श शक्ति के अनेक लाभों के भागीदार बनेंगे।
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दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) के संपादकीय पृष्ठ 8 पर 23 अप्रैल 2021 को प्रकाशित। अखवार का लिंकः https://epaper.jagran.com/epaper/23-Apr-2021-262-National-edition-National-page-8.html
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