चिठ्ठी में जो आत्मीयता और अंतरंगता झलकती है वह व्हाट्सऐप मैसेज में कहां? जिस तरह पुरातन वेशभूषा, खानपान, कलाकृतियों, तौरतरीकों आदि से प्यार उमड़ना शुरू हुआ है, हो सकता है पत्र-लेखने के दिन फिर जाएं।
कल (9 अक्टूबर, सोमवार) विश्व डाक दिवस की सोच कर कुछ यादें ताजा हो रही हैं। विश्व के 192 सदस्य देशों का संगठन यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन इस तारीख को, लोकप्रियता खोती दिख रही डाक व्यवस्था के पुनर्रोद्धार और सुदृढ़ीकरण कार्यक्रमों और प्रयास की जुगतें करता है।
वक्त-वक्त की बात है। शायद जल्द ही स्कूली शिक्षा में बताया जाएगा, चिठ्ठी-पत्री और टेलीग्राम क्या होता था।
डाकिया – सबसे बड़ा संदेशवाहक: करीब चालीस-पचास साल पहले तक का एक दौर था, जब मोबाइल, व्हाट्सैप, फेसबुक वगैरह का नामोनिशान न था – इन शब्दों को कोई जानता तक नहीं था। तब दूरस्थ इष्टमित्रों की कुशलक्षेम जानने का, और समाज, घर-परिवारों को जोड़े रखने का एकमात्र सहारा चिठ्ठी होती थी। उन दिनों किशोर कुमार व वंदना शास्त्री का गाया ‘‘डाकिया डाक लाया’’ और 1986 की ‘नाम’ फिल्म में पंकज उदास का गाया ‘‘चिठ्ठी आई है, आई है’’ लोगों की जुबां पर रहता।
अपनी खबरसार परिजनों, इष्टमित्रों तक चिठ्ठी पहुंचाने वालों में बहुतेरे लिखना नहीं जानते थे। बड़े डाकखानों के बाहर बाकायदा पेशेवर चिठ्ठी लिखवार होते थे। साठ के दशक में कश्मीरी गेट जीपीओ में सड़क से सटी सीढ़ियों के ऊपर, पगड़ी पहने, होल्डर और स्याही से अनपढ़ों के लिए चिठ्ठी लिखने वालों का मैं साक्षी हूं। मजे की बात, पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र लिखवार उर्दू में ही लिखते। नतीजन देहात में जब ये चिठ्ठियां पहुंचतीं तो अनेक बेचारों को उर्दू जानने वालों की बाट जोहनी पड़ती।
वीआईपी होता था डाकियाः दरवाजे के इर्दगिर्द डाकिया दिखता तो कौतुहल होता और कदम उत्सुकता से ठिठक जाते, कहीं अपनी भी चिठ्ठी हो! संदेशवाहक बतौर डाकिए की खास आवभगत होती। दूरदराज क्षेत्रों में वह वीआईपी से कम न था। पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड में, देवप्रयाग के पास, 1970 के दशक में, गर्मियों की छुट्टियों में अपने गांव की डाक संबंधी स्मृतियां आज भी संजोए हूं। हमारे घर उसका पहला पड़ाव होने का कारण था। पिताजी ने व्यवस्था की थी कि डाक से महीने भर ‘‘दैनिक हिन्दुस्तान’’ गांव के पते पर पहुंचे (इस सुविधा के लिए अखवार के दिल्ली, कनाट सर्कस कार्यालय में अग्रिम भुगतान करना होता था)। हमारे घर की मुंडेर पर आसन जमाते ही डाकिए को चंद मिनटों में जायकेदार चाय पेश की जाती। वह खाकी झोला खोलता, चिठ्ठियां बांटता, नौकरीशुदा बेटों, या शादी के शगुन बतौर भेजी मनीऑर्डर की रकम की आस लगाए लाभार्थियों के हवाले करता। यह सद्कार्य निभाने पर वह एक-दो रुपए इनाम बतौर पाता था।
उन्हीं दिनों की मुझ से जुड़ी एक घटना पार्सल संबंधी है। गांव में मेंरा हाई पावर चश्मा टूट गया। चश्मे बगैर मैं पढ़ नहीं सकता था। उन्होंने देहरादून में नवभारत ऑप्टिकल्स के मौसाजी नवनीजी को लिखे पत्र में मेरे चश्मे का नंबर भेजा। मुझे अपार हर्ष हुआ जब चंद ही दिनों में मोटी प्लाई के डब्बे में करीने से पैक किया चश्मा गांव में मेरे पास पहुंच गया। देख कर बेहद खुशी होती है वही दुकान (नवभारत ऑप्टिकल्स) आज भी फलफूल रही है। (मैं दशकों से अपने चश्मे वहीं से बनवाता आया हूं)।
आज भले ही चिठ्ठियों का चलन लोकजीवन में खत्म होते होते केवल सरकारी पत्राचार तक सीमित हो गया हो, किंतु पार्सल की आवाजाही में डाक विभाग शानदार सेवाएं दे रहा है। उन दुर्गम ठिकानों तक डाक विभाग सेवाएं प्रदान करता है जहां डाक या माल पहुंचाने का प्राइवेट कूरियर साहस नहीं जुटाते चूंकि यह फायदेमंद सौदा नहीं रहता। विभाग ने अपने स्लोगन ‘अहर्निशम् सेवामहे’ (यानी रात-दिन सेवा में हैं) को बखूबी सार्थक किया है। देशभर में चिठ्ठियों के आदान-प्रदान की जिम्मेदार एकमात्र एजेंसी डाक विभाग थी। इसकी प्रतिष्ठा अन्य सरकारी विभागों के मुकाबले बेहतर थी। रेलवे के बाद यह दूसरा सरकारी तंत्र था जहां कर्मचारियों को बोनस मिलता था।
सेनाकर्मियों को घर-परिवार से जोड़े रखने के लिए 1972 से विभाग की अलग इकाई आर्मी पोस्टल कॉर्प्स है। डाक सामग्री को द्रुतगति से गंतव्य तक पहुंचाने के लिए बहुत सी रेलगाड़ियों में एक डाक डब्बा होता है, उन गाड़ियों के नाम में ‘मेल’ लिखते हैं।
बहुमुखी होता डाक विभाग का दायराः देश के कोने-कोने में फैले 1.56 लाख डाकखानों का जनहित योजनाओं जैसे मनरेगा, वृद्ध पेंशन भुगतान में सक्रिय योगदान है। अगले चरण में करीब 2.50 लाख पंचायतें डिजिटल सेवा केंद्र के रूप में उभर रही हैं। मौजूदा ‘फटाफट’ वाली जीवनशैली और संचार क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति के चलते भले ही डेढ़ सौ वर्ष से चलते डाक विभाग की लोकप्रियता और आमद आहत हुई, किंतु इसकी प्रतिष्ठा या गरिमा बरकरार है।
डाकखानों के माध्यम से बैंकिंग सेवाएं, बीमा, और फिक्स डिपाजिट की फायदेमंद योजनाएं पहले से चालू हैं, एटीएम भी स्थापित कर लिए गए हैं। इन्हें सुचारु रूप से चलने दिया जाए तो डाक विभाग के अच्छे दिन फिर जाएंगे।
बहुर सकता है चिठ्ठियों का जमानाः एक सवाल विलुप्त होती व्यक्तिगत चिठ्ठी-पत्रियों का है। चिठ्ठी में जो आत्मीयता झलकती है वह व्हाट्सऐप मैसेज में कहां? हालिया एनआईडी के दो छात्रों ने पत्रलेखन की मृतप्राय प्रथा के पुर्नोद्धार की मुहिम शुरू की है। ‘‘डाकरूम’’ नामक अभियान की प्रेरणा से पांच लाख पत्र लिखे गए हैं। एक सर्वेक्षण में उन्होंने पाया, 69 प्रतिशत पत्र नहीं लिखते उत्तरदाताओं ने स्वीकार किया किया कि कोई हस्तलिखित पत्र उन्हें भेजे तो उनके दिल को छू जाता है।
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यह आलेख परिवर्तित, संक्षिप्त रूप में दैनिक हिन्दुस्तान में 9 अक्टूबर 2023 को प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंक: https://www.livehindustan.com/blog/cyberworld/story-hindustan-cyber-world-column-09-october-2023-8821005.amp.html
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सुंदर विवरण। मेरे पास आज भी कुछ इंग्लैंड और अमेरिका के टिकट हैं।
।। जय बद्री विशाल ।। सादर प्रणाम। अभिवादन। अति सुन्दर, सराहनीय लेख!