किसने सोचा था, ये दिन भी देखने होंगे?
दिल्ली जमुनापार अपने आवासीय परिसर के सामने एक नामी स्कूल है, बीच में डीडीए का पार्क है, जिसकी दूसरी सरहद वाली सड़क दाईं ओर दिखते मेट्रो स्टेशन तक जाती है। लाकडाउन से पहले तक यह सड़क खासी गुलजार रहा करती थी। सुबह स्कूल खुलने पर और स्कूल छूटने पर बसों, मिनि बसों, आटो, कारों, रिक्शाओं आदि का तांता इस कदर लगा रहता था कि वाहनों को क्या, पैदल चलतों को भी खासी दिक्कत होती। स्कूल के छूटने पर चाऊमिन, बर्गर, बिरयानी के ठेले-खोमचे वाले और उनके नन्हें ग्राहक भीड़ बढ़ाने में योगदान देते। सारे दिन मेट्रो की आवाजाही से बच्चों से बूढ़ों तक गहमागहमी रहती।
अब नजारा दूसरा ही है। सुबह से रात तक मातमी सन्नाटा पसरा रहता है। रात सात बजे बाद मेन रोड को जाती सड़क पर कुत्तों का राज रहता है। सोसाइटी परिसर में किसी बाहरी व्यक्ति के आने पर प्रतिबंध है; यहां के लोग बाहर भी कहीं नहीं जाते-आते। भीतर कोई कोरोना का संदिग्ध व्यक्ति भी नहीं। तो भी समूची फिजाएं दशहत से सराबोर हैं। हर शख्स पहले तो अपने घर में दुबका रहेगा, और नजर आएगा तो डरा-सहमा। एक या तीन मीटर के फासले से बतियाने वाले भी सहज हो कर बातचीत नहीं करेंगे, गोया कोरोना का वायरस लपक कर उनके मुंह में प्रवेश करने को मचल रहा है। ज्यादा जानकारी की वजह से शिक्षित, सम्य व्यक्ति सहमते-डरते ज्यादा हैं। कम पढ़े, निचले तबके वाले बेपरवाह, बेफिक्र मिलेंगे। दिल्ली ही नहीं, हर छोटे-बड़े शहर में भय और संदेह के हालात हैं।
प्रभु ही सलामत रखे हैं झोपड़पट्टियों को
सभी शहरों में अलग से स्लम बस्तियों के अलावा विकसित, साफसुथरी बसावटों से सटी, अमूनन अनधिकृत, छुटमुट झोपड़पट्टियां हैं। उस ओर रुख करें तो कुछ और ही सीन नजर आएगा। यहां की छह-सात फुटी संकरी गलियों में एक अदद चिंदे से कमरे में अमूनन चार-पांच लोग रहते हैं; रहते क्या हैं, रात गुजारते हैं। परिवार के सभी लोग अधिकांश वक्त बाहर काम पर रहते हैं। नियमित कालोनियों में कामकाजियों पर रोक से वे लोग निठल्ले हो गए हैं। इन दिनों इन बस्तियों की गलियों में रखी खाटों पर ढ़ेरों लोग साथसाथ बैठे मिलेंगे। यहां ज्यादातर दुकानें खुली मिलेंगी जहां बीड़ी-तंबाखू वगैरह सहित सभी जरूरी-गैरजरूरी सामान मिल जाएगा, रेट जरूर बढ़े होंगे लेकिन उतना नहीं जितना ठीकठाक दुकानों के। इन बस्तियों के अलहदा रहनसहन, और जीवनशैली के चलते यहां लाकडाउन लागू करने में भारी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। बड़े पैमाने पर मानीटरिंग के लिए उपयुक्त जनशक्ति भी कहां है? प्रभु ही इन इलाकों को सलामत रखे हैं!
नए दौर के नए राष्ट्रीय सरोकार
घर बैठे कामकाज करना सभी वेतनभोगियों, खासकर उम्रदारों के लिए संभव नहीं। बेशक चुनींदा संगठनों में पहले से अनेक कार्य आनलाइन निबटाए जाते रहे हैं किंतु इनकी तादाद बमुश्किल पांच-सात फीसद होगी। अधिकांश उम्रदार आनलाइन निष्पादन में अनाड़ी से हैं, कुछ इसलिए भी कि डिजिटली तौरतरीकों की तरफ उनका रुझान नहीं रहा। ऐसे कार्मिकों को प्रशिक्षण के बावजूद डिजिटल कार्यशैली के अनुरूप कार्य करने में वक्त लगेगा। वैसे भी सभी कार्य इंटरनेट से संपन्न नहीं हो सकते।
लाकडाउन के दौर में नियोक्ताओं की जाहिराना फिक्र है कि कमाई न होने से कर्मचारियों को तनख्वाह कहां से देंगे, उधर सरकारी दिशानिर्देश हैं कि इस दौरान अनुपस्थिति के लिए वेतन में कटौती न की जाए। मोटे रिजर्व वाले कुछ शोषणकारी मिजाज के नियोक्ता पहले से कर्मचारियों को भींच-भींच कर उनका जायज पैसा देते थे, उन्हें भी कम देने या नहीं दे सकने का बहाना मिल गया है। आनलाइन शिक्षण में बहुत थोड़े अध्यापक ही सक्षम हैं। शैक्षिक संस्थानों को चूंकि छात्रों से फीस वसूलनी है, उन्होंने अनाड़ी, अधकचरे शिक्षकों द्वारा जैसे तैसे आनलाइन पढ़ाने के कार्यक्रम शुरू किए हैं जिनका छात्रों को थोड़ा ही लाभ मिल रहा है। दूसरा आर्थिक पक्ष है। सोचिए, आनलाइन कक्षा में उपस्थिति के लिए प्रत्येक छात्र के पास स्मार्टफोन और अबाध इंटरनेट अनिवार्य हैं, क्या सभी मातापिता यह अफोर्ड कर सकते हैं?
औद्योगिक जगत पर लाकडाउन की मार पड़ी है, समग्र उत्पादन घटा है। अनेक क्षेत्रों में कम या शून्य उत्पादन है। तैयार माल के परिवहन, वितरण और इसे खुदरा विक्रेताओं तक पहुंचाने की अलग किल्लते हैं। कमोबेश सभी सामग्रियों की कीमतें तीस से पचास फीसद बढ़ी हैं, आमदनी में गिरावट के हालातों से आम आदमी परेशान है। उधर अपने ही हितों को मद्देनजर रखते हुए फिक्की ने औद्योगिक उत्पान ठप्प होने और बेरोजगारी आसमान में होने की पुरजोर गुहार लगाई है। पूर्व-लाकडाउन युग में वापसी कब होगी, कोई नहीं जानता। सवाल युद्धस्तर पर महामारी को थामने का है जिसके लिए तमाम जुगतें की जा रही हैं। लाकडाउन को राजनीतिक रंग दिए जाने की कुत्सित खेल खेले जा रहे हैं। कभी ध्वनियां उत्पन्न करने को तो कभी नौ मिनट तक दीप प्रज्वलन का मजाक बनाया जा रहा है। याद रहे, जिन अधिक सुविधा और संसाधन संपन्न मुल्कों में अपने देश से दो-तीन महीने पहले लाकडाउन शुरू किया, वहां अभी तक वही स्थिति बरकरार है। लोग जीवित रहेंगे तभी मौजूदा दिक्कतों का दुखड़ा रोने के मायने हैं। विरोधियों के दिलों में सद्भावना है, माद्दा है, तो क्यों नहीं वे लाकडाउन या इसकी कार्यविधि का व्यावहार्य विकल्प ले कर सामने आते।
मामला बच्चों की संभाल का
नए दौर की मातापिता की एक भारी परेशानी बच्चों को संभालने की है। बच्चों को संभालने से मातापिता की नाक में दम है। अभी तक आलम यह था कि दो-ढ़ाई साल के बच्चे की संभाल को झंझट मानते हुए मातापिता दो-चार घंटों के लिए ही सही, प्लेस्कूल में भेज कर फक्र महसूस करते थे। लाकडाउन ने बहुतेरे मातापिता को पुनर्विचार के लिए बाध्य कर दिया है कि उन्हें बच्चों को संभालना ही होगा। परोक्ष तौर पर कुदरत ने मातापिता को उनका पहला धर्म निभाने के लिए झकझोरा है। समूचे दिन गृहबंद रहने से बच्चे ही नहीं मातापिता भी मानसिक संतुलन खो रहे हैं।
आपदा में लोगों को एकजुट करने की भारी ताकत होती है। लाकडाउन ने जन-जन को संदेश दिया है कि पंथ, जाति आदि से अलहदा, सभी व्यक्तियों के बुनियादी सरोकार एक ही हैं, सभी प्राणी अंदुरुनी तौर पर एक दूसरे पर आश्रित हैं और इसीलिए सभी में एक दूसरे के प्रति सौहार्द के बिना जीवन संभव नहीं है। दूसरा यह भी कि व्यक्ति उससे कहीं कम से गुजर कर सकता है जितना उसके पास है। मौजूदा माहौल में जिन्हें घर काट रहा है वे विचार करें, दुनिया में उनकी क्या भूमिका है, क्यों उन्हें पृथ्वी पर भेजा गया है। क्या नौकरी करने, अपना कारोबार जमाने, संपति एकत्रित करने या लोकप्रियता अर्जित करने भर के लिए। या प्रकृति की प्रत्येक प्राणी से कुछ ठोस अपेक्षाएं हैं?
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यह आलेख हिंदी दैनिक वीर अर्जुन में मेरे रविवारी कालम ‘‘बिंदास बोल’’ में 19 अप्रैल 2020 को प्रकाशित हुआ था।
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Fact of present life. I agree with your contention in this article.