मशाल, दिए और कैंडिल जलते रहें ताकि जीवन की लौ मुरझाए नहीं

सभी पंथों, समाजों में दीप प्रज्वलन की सुदीर्घ परंपरा रही है। दिए का प्रकाश जहां तमाम अंधेरे को खत्म करता है वहीं इसका ध्यान हमें उस परम शक्ति से जोड़ता है जिसके हम अभिन्न अंग हैं।

आज प्रकाश पर्व है। प्रकाश ज्ञान, उल्लास, प्रगति और हर्ष का प्रतीक है।

दीप प्रज्वलन की सुदीर्घ परिपाटी

दीप प्रज्वलन भारतीय लोक चिंतन, संस्कृति और धर्म-अनुष्ठानों की धुरी है। कार्तिक मास की अमावस्या को पड़ने वाली हिंदुओं की दीपावली, और इसके उपरांत पूर्णिमा को सिखों का गुरुपर्व, दोनों पर्व दीप प्रज्वलन के प्रति भारतीय निष्ठा की विशेष अभिव्यक्तियां हैं। इन दिनों घरों, कार्यालयों, दुकानों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों को दीपों या बिजली की लड़ियों से आलोकित किया जाता है।

दीप प्रज्वलन का माहात्म्य

अंधेरा कितना भी हो, एक दिए से विलुप्त हो जाता है। सभी धार्मिक कार्यों में वातावरण को अग्नि या अन्य विधि से इस आशय से आलोकित किया जाता है कि जीवन में उत्साह और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता रहे। वैदिक उद्बोधन ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ में प्रभु से प्रतिवेदन है – हमारे भितरी और बाह्य जीवन से अंधकार यानी अज्ञान निराकृत करते हुए हमें प्रकाश यानी ज्ञान की ओर प्रशस्त रखना। दीप प्रज्वलन मूल रूप से अग्नितत्व की आराधना है। आदि समुदायों में रात्रिकाल में अग्नि के चारों ओर सामूहिक नृत्य-गायन की प्रथाओं में जीवनदाई अग्निदेव की स्तुति के साथ निजी उद्गार साझा करने का भाव था।

दीप का माहात्म्य:  किसी भी पंथ का छोटा-बड़़ा अनुष्ठान दीप प्रज्वलन बिना संपन्न नहीं माना जाता। आलोकित दीप से परालौकिक अनिष्टों-बाधाओं के शमन और नए कार्य के मंगलमय होने की धारणा सदियों पुरानी है। दीपक के प्रकाश की अहमियत विवाह, जन्मदिन, नामकरण, दीक्षांत समारोह आदि की रस्मों तक सीमित नहीं। रिहाइशी, कार्यस्थलीय, औद्योगिक भवनों के शिलान्यास के अलावा शासकीय, राजनैतिक, वैज्ञानिक व अन्य अधिवेशनों, बैठकों आदि का श्रीगणेश अनिवार्यतः दीप प्रज्वलन से किया जाता है।

दिया-बाती हिंदू परिवारों की दैनिक व अन्य पूजाओं का अभिन्न अंग है। इस्लाम के अनुयायी मानते हैं कि जन्नत और धरती में मौजूद प्रकाश सर्वज्ञ खुदा का प्रतिरूप है। आले में कांच के सांचे में रखा लैंप प्रकाशवान सितारे की भांति नेकी का प्रतीक है। ईसाचरित को सदा लैंप के आलोक में पढ़ा जाता है। प्रकाश को ईश्वरीय उपस्थिति मानते ईसाई नवनिर्मित गिरिजाघर में पहले पूजास्थल में मशाल और प्रार्थनास्थल के गिर्द तेल के दिए जलाते हैं। अंत्येष्टि में अपनी मोमबत्ती को इस आशय से बुझाते हैं कि हर किसी को देर सबेर प्रभु के समक्ष समर्पण करना होगा। पारसियों में अग्नि नैतिक औचित्य का स्तंभ है तो यहूदियों में प्रकाशपुंज को आस्था का प्रतीक समझते हैं।

प्रकाश: आध्यात्मिक पक्ष

दार्शनिक स्तर पर प्रकाश का स्वयं में अस्तित्व नहीं। यह एक क्षणिक, भौतिक और इसीलिए नश्वर अस्मिता है जिसका अस्तित्व बाहरी स्रोत पर निर्भर है। इसके विपरीत अंधकार मृत्यु के समान अटल, परम सत्य, शाश्वत अस्मिता है; सभी जीवों का अंततः उसी में विलय हो जाना है। तथापि सृष्टि की गतिविधियां अबाध रूप से जारी रहें, लोग संघर्षरत रहें, जनमानस में उल्लास और जीवंतता का भाव बना रहे, उनके हृदय में नैराश्य न पसर जाए, इसीलिए मायावी संसार रचा गया। प्रकाश को दिव्यता, ज्ञान, सद्बुद्धि, विवेक, समृद्धि तथा जीवनदाई शक्ति का प्रतीक माना जाता है तथा सभी धर्मों, पंथों, सत्साहित्य और प्रवचनों में प्रकाश की ओर बढ़ते रहने का आह्वान है।

महात्मा बुद्ध के अंतकाल में उनके सबसे करीबी शिष्य आनंद ने शोकाकुल, रुआंसी मुद्रा में कहा, ‘‘मेरा क्या होगा, मैं आपके बिना कैसे जी सकूंगा, मैं अभी तक निर्वाण की अवस्था में भी नहीं पहुंच सका हूं। बुद्ध ने कहा, शोक मत करो, ‘‘अप्प दीपो भव!’’ यानी प्रत्येक व्यक्ति को आत्मज्ञान के लिए अपने अंतःकरण को स्वयं जाग्रत करना होगा। कोई अन्य व्यक्ति हमारे भीतरी दीपक को प्रज्वलित नहीं कर सकता। गुरु केवल दूसरे को मार्ग दिखा सकता है, उसकी अंतर्यात्रा में सहायक हो सकता है किंतु अपना दीपक तो जिज्ञासु को स्वयं प्रज्वलित करना है। इसी तर्ज पर प्रेरक साहित्य के नामी लेखक स्टीफेन कोवे कहते हैं, बेहतरी के द्वार भीतर से बाहर की ओर खुलते हैं कि यानी सुधार तभी संभव है जब अंदुरुनी ललक हो। अज्ञानी या अल्पज्ञानी की इच्छा न हो तो गुरु, मातापिता या सुधी जन उसे सन्मार्ग पर नहीं ला सकते।

 प्रत्येक मनुष्य का असल स्वरूप हाड-मांस में लिपटे सितारे की भांति हैं। जिस प्रकाशपुंज को हम इधर उधर ढ़ूंढ़ते रहते हैं वह हमारे भीतर मौजूद है। अवांछित आवरणों को निराकृत करते हुए हम उसे प्रज्वलित करेंगे तो दूसरों का जीवन भी रौशन करने में समर्थ होंगे।

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इस आलेख का संक्षिप्त रूप नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ; अखवार के ऑनलाइन संस्करण का शीर्षक ‘अज्ञान के अंधेरे से निकलना है तो यही है एकमात्र रास्ता; लिंंक –

https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/speaking-tree/this-is-the-only-way-out-of-the-darkness-of-ignorance/articleshow/91043570.cms

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