सुंदरता उपभोग की चीज नहीं, अनुभव करने और आनंदित रहने के निमित्त है

बेशक हसीन चेहरों ने बहुतेरे गुल खिलाए हैं, ‘‘हजारों जहाजों को लाइन में खड़ा कर दिया’’, दुनिया के नक्शे बदल डाले। किंतु इससे सुंदरता के मायने नहीं बदल गए।सुंदरता का अर्थ मुखौटे के आकर्षण या इतराती, मटकती अदाओं से नहीं, असल व्यवहार, आचरण में झलकती आपकी सोच और मंसूंबों से है। आपके कहने या ऐलानों से भी नहीं बल्कि आपके उन कार्यों से है जो आप सदाशयता से ,परहित में करते रहे हैं, कर रहे हैं; आपके योगदान से है। सुंदरता हथियाने-कब्जाने के निमित्त भी नहीं …

 

दुनिया की तमाम सुंदर अस्मिताएं मनुष्य के सीधे उपभोग के लिए नहीं, केवल निहारने, अनुभूत करने और आनंदित होने के निमित्त हैं। इसीलिए प्रार्थना, चुंबन या स्वप्न के दौरान या दिल को छूते संगीत को सुनते समय आंखें बंद रहती हैं।

आभासी सुंदरता को हमारा समाज इतना महत्व देता है कि मुखौट़े को चमकाने, मकान-दुकान आदि की बाहरी लुक को संवारने की उधेड़बुन में समूचा ध्यान लगाया जाता है। सुंदर दिखने की लालसा पहले महिलाओं, लड़कियों तक सीमित थी, नन्हीं बच्ची को सैंडल से मैच करता हेयर बैंड चाहिए होता रहा है; अब पुरुष भी पीछे नहीं। यूनिसेक्स सैलूनों के अलावा पुरुष पार्लरों की बढ़त जारी है। साज-सज्जा और लीपापोती के फलते-फूलते कारोबार का दारोमदार सुंदर दिखने-दिखाने की चाहत पर टिका है।

सुंदरता एक भीतरी अस्मिता है। मनोहारी छटा, आकर्षक पुष्प, सुंदर व्यक्तित्व, दिल को भावविभोर करती कलाकृतियां आदि में निहित सुंदरता के स्वरूप या प्रयोजन को न समझने वाला उसे स्पर्श करने, कदाचित हथियाने के लिए लालायित रहेगा। बाह्य सुंदरता से अभिभूत व्यक्ति क्षुब्ध या असंतुलित हो सकता है, उसका व्यवहार और आचरण सहज नहीं रहता। आपकी सुंदर अदाओं के सैकड़ों फेसबुकी ‘लाइक्स’ निरर्थक हैं यदि आपको अपनी भीतरी सुंदरता व अन्य गुणों के प्रति संदेह है और स्वयं को हेय समझते हैं। पौप संस्कृति और पीत मीडिया से उपजी सौंदर्य की धारणा इकतरफा है, इन्होंने सौंदर्य की परिभाषा को विकृत किया है।

बाह्य सुंदरता जोखिमभरी हो सकती है। पत्नी, बहिन, बेटी दिखने में ज्यादा सुंदर हो तो वे परिजन व मित्रगण भी संबंध रखना, बढ़ाना चाहेंगे जिन्हें अन्यथा आप से दो घड़ी बतियाना मंजूर नहीं। इसलिए नामी कवि यीट्स अपनी नन्हीं को डोलने में झुलाने की पृष्ठभूमि में रचित कविता ‘ए प्रेयर फार माई डाटर (बेटी के निमित्त प्रभु से याचना)’ में मिन्नत करते हैं, ‘‘मेरी नन्हीं बिटिया बड़ी होने पर खुबसूरत हो पर इतना ज्यादा नहीं कि उसे देख कर राहगीरों की निगाहें विचलित हो जाएं और उनके दिल डोल जाएं’’। दिल को असंयत करती सुंदर अस्मिताओं का दूसरा पक्ष उनकी प्राप्ति के पश्चात मोहभंग और हताशा का है। भावी जीवनसाथी के निर्णय में गुणों को समग्रता में देखने परखने के बजाए बाहरी सुंदरता को आधार बनाने के फलस्वरूप चंद वर्षों बल्कि महीनों में दरदराते, टूटते विवाहों के अनेक प्रसंग हम आए दिन देखते, सुनते, पढ़ते हैं। बालू के मैदान में तब्दील हो जाना दूर के सुनहरे दृश्य की नियति है। ऑस्कर वाइल्ड ने कहा, दुनिया में दो ही दुख हैं। पहला उस वस्तु के पहुंच से परे होने का गम जिसकी लालसा हमे निरंतर सालते रहती है; दूसरा, उसका सुलभ हो जाना – चूंकि उसके पश्चात हम एजेंडाविहीन और निराश हो सकते हैं। नृत्य से अभिभूत होने का प्रमुख कारण नर्तकी को नहीं जानना है।

असल सुंदरता परालौकिक, दैविक अस्मिता है, भौतिक जगत की नहीं; इसका उपभोग केवल आंखों से होना है, हाथ या मुंह से नहीं। सही में सुंदर व्यक्ति के समक्ष होने पर याद रहे, दृष्टि सही नहीं होगी तो उसका दैविक स्वरूप उस स्थान को छोड़़ देगा, केवल स्थूल संस्करण बचा रहेगा। सुंदर वही हो सकता है जो शाश्वत सत्य यानी प्रभु का प्रतिरूप है, ‘‘सुंदरता सत्यम् शिवम् सुंदरम्’’।

सच्ची सुंदरता आत्मा से झलकती है। नन्हें बच्चे की सहज, निश्छल, कदाचित अकारण मुस्कान से अधिक सुंदर दुनिया में क्या होगा? सुंदरता उन पक्षियों के कलरव में है जो आपने कभी नहीं सुने, उन किताबों में, उन व्यक्तियों के व्यवहार में विद्यमान है, जिनसे आप कभी नहीं मिले, उन वादियों में है जहां आप कभी नहीं गए। समस्त जीवन सुंदर वस्तुओं से परिपूर्ण है, उनसे जुड़ें। उस सौंदर्य का समादर करें, और जैसा जोन वोल्फगैंग गेटे ने लिखा, उस सौंदर्य बोध से वंचित न रहें जिसे प्रभु ने प्रत्येक आत्मा में प्रत्यारोपित किया है।

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नवभारत टाइम्स, 15 फरवरी 2021, सोमवार के संपादकीय पृष्ठ (स्पीकिंग ट्री कॉलम) में ‘‘देखने वाली नजर हो तो दुनिया में सब कुछ सुंदर है’’ शीर्षक से प्रकाशित।

ऑनलाइन अखवार का लिंकः

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