बोर्ड परीक्षाओं में धांसू प्रदर्शन से छात्रगण झूम उठे हैं, उनके मातापिता की बांछे खिल गई हैं।
बच्चों के छप्परफाड़ परिणामों से परिजन भी इतरा रहे हैं।
यह भी सिद्ध हो गया कि देश का अकादमिक भविष्य उज्ज्वल है।
हमारे 1970 के जमाने के बेरहम, सख्तमिजाज परीक्षकों की आत्माएं आज के परिदृश्य को देख तड़प रही होंगी जो सालाना और बोर्ड परीक्षाओं में खींच-खींच, भींच-भींच कर नंबर देते थे, मानों जेब से देने हों। मार्जन पर लटकते को एक नंबर एक्सट्रा देने में उनका दम निकलता था। जम कर पढ़ाई के बावजूद ठीकठाक नंबर नहीं पाने में दोष होनहारों का नहीं, नंबरदाताओं के संकीर्ण माइंडसेट का था। हिंदी या अंग्रेजी निबंध की मार्किंग में विधान था कि 100 में से 60 से अधिक देने ही नहीं। परीक्षक स्वयं कोई उत्तर नहीं लिख सकते थे जिसमें अधिक नंबर दे सकें।
कुछ तो पक्का ‘सैडिस्ट’ किस्म के थे; हम मासूमों को शारीरिक और मानसिक यातना दे कर उन्हें लुत्फ मिलता था। ड्राइंग टीचर के कृत्य निराले थे, जिनकी ड्राइंग उन्हें नहीं जचती दंड बतौर उनकी दो उंगलियों के बीच पेंसिल रखते और उंगलियों को हल्के-हल्के देर तक घुमाते रहते; तब की वह असह्य पीड़ा भुलाए नहीं भूलती। एक अंग्रेजी वाले सर थे, हर बार मात्र दो स्पेलिंग मिस्टेक होने पर मुर्गा बनवा कर चलवाते। उस दौर में सभी विषयों में डिस्टिंकशन यानी 75 प्रतिशत या अघिक वाले इतने थोड़े होते कि अखवार में उनके फोटोमय विवरण छपते। पांच विषयों में से चार में डिस्टिंकशन वाले भी सीना चौड़ा करके चलते थे।
वो दिन फाख्ता हुए। आज छात्र-छात्राएं मजे लूट रहे हैं। गलत न समझा जाए, इस मौज का समूचा श्रेय कोरोना के कारण बरती ढ़ील को नहीं जाता। कोरोना के पिछले और इस साल के नतीजों की जाने दें, इन दो सालों में तो कैसे-कैसों का बेड़ा पार हो गया।
बोर्ड परीक्षाओं में नंबरों की बरसात का सिलसिला पहले ही शुरू हो गया था। पिछले 15-20 सालों का आंकड़ा उठा लीजिए, बोर्ड ने तजबिज ऐसी कर दी है कि फेल होने का कलंक किसी को न लगे। जैसे सभी विषयों में 100 में से 30 अंक प्रैक्टिकल के हैं। अकादमिक ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष यानी प्रैक्टिकल में हमारे छात्र इतने मेधावी हैं कि कोई माई का लाल 30 में से 25 से कम अंक नहीं पाता, विश्वास न हो तो आरटीआई लगा कर पुष्टि कर लें। फिर थियोरी के 75 में से 30 भी मिलें तो प्रैक्टिकल के अंक जोड़़ कर 55 प्रतिशत हुआ। मूर्ख इंडस्ट्रीवालों को इसकी कद्र नहीं होने से हमारे छात्रों का हुनर जरब नहीं हो जाता। सुना है जीवन में व्यावहारिक पक्षों की ज्यादा उपयोगिता के मद्देनजर है, प्रैक्टिल के अंकों का अनुपात 30 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक बढ़ाने पर मंत्रणा चल रही है।
दूसरी ओर, बोर्ड में 60-70 प्रतिशत अंक वाले यों सहमे रहते हैं जैसे उन्होंने अपराध कर डाला हो। बुझदिल क्यों न रहें, उनके मातापिता नन्हों के दिलोदिमाग में ठूंस जो चुके हैं कि शानदार नंबरों बिना भविष्य चौपट है, इससे तो न जीना ही बेहतर। यह भी पट्टी पढ़ाई जाती है कि उच्च नंबरों के पुनीत लक्ष्य के लिए जुगाड़बाजी में हिचकना नहीं है।
शुक्र है, आज देश में प्रतिभाशीलों की भरमार है, 80-90 प्रतिशत वाले एक ढूंढ़ोगे तो दस मिलेंगे, दूर ढूंढोगे तो पास मिलेंगे। अब यदि 95 प्रतिशत वालों को मनचाहे कॉलेज या प्रोफेशल कोर्स में एडमिशन न मिले तो प्रशासन को धिक्कार है, इज्जतदार कोर्सों में प्रचुर सीटें क्यों नहीं हैं?
भारीभरकम कोर्स और वजनी किताबों के बावजूद अच्छे नंबर पाने वालों की संख्या में लगातार बढ़त से स्पष्ट है कि नई पीढ़ी के छात्र लगनशील, प्रतिभासंपन्न और परिश्रमी हैं, उनमें पढ़ने की ललक है। वे पिछली पीढ़ियों के छात्रों की तरह बुद्धू और फिसड्डी नहीं। यानी देश का अकादमिक भविष्य उज्ज्वल है।
खुशहाल समाज और राष्ट्र का दारोमदार युवा पीढ़ी पर है, वे हमारा भविष्य हैं। उनकी पीठ थपथपाते रहना हमारा परम कर्तव्य है। कम नंबर दे कर उनका मनोबल नहीं गिरने देना है, यह बातें शिक्षा बोर्ड बखूबी जानते हैं। छात्रों को छप्पर फाड़ नंबर दिलाने में बोर्ड एक पुनीत कार्य में योगदान देते हैं। इसीलिए उत्तरपुस्तिका जांच से पूर्व परीक्षकों को समझा दिया जाता है कि पहले ही किताबों के बोझतले दबे छात्रों को नंबर देने में कंजूसी नहीं बरतनी है।
परीक्षा में उत्तर करीब-करीब सही हो, भाषाई प्रश्नपत्रों में गल्तियां हों, आधा-अधूरा भी लिखा हो तो भी दनादन नंबर। जो बेचारे टेंशन में ठीक से न लिख पाएं उनकी उत्तरपुस्तिका में परीक्षकगण स्वयं पास होने लायक अपने पेन से लिख डालें! बोर्ड परीक्षाओं में छक्के लगाते छात्रों की खुलेदिल से वाहवाही नहीं करने वालों से निवेदन है, अनुरोध है, प्रार्थना है, सकारात्मक रुख अपनाएं।
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उचित अवलोकन।