ऊपर से जो मिले उसका मजा अदभुद, चिरस्मरणीय रहता है
पढ़ाई में मुन्नी के अव्वल रहने में किसी को संदेह नहीं था, सभी विषयों में उसे आत्मविश्वास भी था। फिर भी उसकी मां रोज मुन्नी को फुसलाती, मिन्नत करती कि बड़े भाई का ट्यूशन टीचर निकलने लगे तो चलते चलते उससे कुछ भी पूछ लेना। मुन्नी खीजते हुए रोज दलील देती, मुझे कुछ नहीं पूछना। मां का वही पुराना डायलॉग होता, ‘‘तू समझती क्यों नहीं। जब बड़े भाई की ट्यूशन के पूरे पैसे देते ही हैं तो थोड़ा फायदा तू भी उठा ले।’’
जितना कायदे से मिलना चाहिए उससे ज्यादा के लिए लालायित रहने और जुगाड़़ वाले एक ढूंढ़ोगे तो दस मिलेंगे, दूर ढूंढ़ोगे तो पास मिल जाएंगे। श्रीमान फोकट प्रसादजी को देख लीजिए। रिटायरमेंट के बाद उन्हें सेटल होने के लिए दो सौ गज का प्लाट लेना था। शहर के ऐन बीच मिल भी रहा था। उसे खारिज करते हुए उतना ही बड़ा प्लॉट उसी कीमत पर उन्होंने दूर दराज बीहड़ में नदी किनारे खरीद डाला। रिश्तेदार, शुभचिंतक और मित्रगण सभी हैरान। सभी ने एक स्वर में ऐलान कर दिया, उम्रदराजी में फोकट प्रसाद जी की मति मारी गई!
उनके अदभुद निर्णय का रहस्य सालभर बाद गृहप्रवेश के दौरान खुला। वे आगंतुकों को समझा रहे थे, ‘‘मकान की दीवार से परे नदी किनारे तक चार सौ गज सब्जी लगी सटी जमीन अपनी ही है। मुझे असल सुख-चैन दुगुनी हथियाई जमीन से मिलता है। मेरी आत्मा अब प्रसन्नचित्त और तृप्त है।’’ मेहमानों ने फुसफुसाते एक दूसरे को सांत्वना दी, कब्जाई गई जमीन का लुत्फ हर किसी की किस्मत में नहीं होता।
जिन निर्लज्जों की छुटपन से लुकाछिपी या सरेआम दूसरे के हिस्से का हड़पने या सरहद लांघने की फितरत रही, वे जंग-दर-जंग जीतते जग जीत लिए। बाकी मर्यादाओं की अनुपालना करने वाले हाथ मलते रह गए। एक पूर्व सिविल अधिकारी तो बिजली के खंभे पर चढ़ कर सीएम तक बन गए।
पिछली पीढ़ी वाले याद करें – खोमचे वाला 50-100 ग्राम मुरमुरे, मूंगफली आदि तौलने के बाद ऊपर से कुछ अतिरिक्त डाल देता था; इसे हम चुंगा कहते थे। चुंगे की मात्रा से संतुष्ट न होने वाले बाज ग्राहक और चुंगा मांगते थे और विक्रेता बगैर नाक निपोड़े थोड़ा और थमा देता था। यही दस्तूर दूध वाला बाल्टी से दूध देते या तेल, घी वाला निभाता था। सही तौल के बावजूद चुंगा डाले बिना डील पूरी नहीं मानी जाती थी। बंगाल में ‘फौड़’ नहीं देने पर गरदन नप जाने के किस्से देखे-सुने जाते रहे हैं। सत्य यह है कि चुंगा दे कर ठेलीवाले से ले कर दूध, परचून या मिठाई विक्रेता अहसान नहीं करता बल्कि अपना प्रोफेशनल और नैतिक फर्ज निभाता है। बनी बनाई सरहद के भीतर रहते-सोचते रहने मस्तिष्क की उर्वरकता परिसीमित न होती तो चुंगे के दस्तूर को देशव्यापी मान्यता न मिलती।
उन्होंने बचपन का आनंद ठीक से नहीं लिया जिन्होंने गुपचुप भाई-बहनों के हिस्से की खीर, मिठाई या उनकी कटोरी से थोड़ी एक्सट्रा नहीं हड़पी। अपन तो दूसरों से एक्सट्रा न मिलने पर ठगा महसूस करते थे और मौके की फिराक में रहते। इस एक्सट्रा से उफनते लुत्फ में आपको फील गुड की ऊंचाइयों तक पहुंचाने की सामर्थ्य जो है। अपने खेत में ढ़ेर ककड़ियों के बावजूद दूसरे के खेत से चुराई ककड़ी का स्वाद उम्रभर आह्लादित करता है। बैरियर से बाहर निकलने और अपेक्षित दायित्व से एक कदम आगे बढ़ने को सयाने ‘‘एक्स्ट्रा माइल’’ का फंडा बोलते हैं और जिंदगी में कुछ ठोस हासिल करने के लिए अनिवार्य मानते हैं। जो इस मंत्र को नहीं जाना, वह टोटे में रहा।
खुलेपन का जमाना ढ़ल गया। चुंगे की कसक रह गई है। लोगों के दिलों की तरह अब दूध, दही, तेल, मसाले, दाल समेत हर चीज सीलबंद या पैकेटबंद है। अब तो पत्थर का कोयला भी पैकेटों में बिकता है। चुंगा परिपाटी के जरजराने के साथ विक्रेता-ग्राहक संबंधों की आत्मीयता घटी है। नई सेल्स संस्कृति में एक के साथ एक, दो या तीन फ्री ऑफरों की तर्ज पर सुनने में आया है, बिल्डर अब फ्लैट के साथ मेड फ्री देने पर विचार कर रहे हैं।
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इस आलेख का संक्षिप्त प्रारूप दैनिक हिन्दुस्तान के नश्तर कॉलम में 20 अगस्त 2021, शुक्रवार को ‘कभी उड़ाई, दूसरे की मलाई?’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंकः
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बहुत सुंदर ब्लॉग है। आजादी के बाद नेतिकता के पतन पर सटीक बैठता है।
A nice thought very well written. Kudos.