‘‘अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला’’। लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन की इस पंक्ति में दो इशारे हैं। पहला इस सोच पर तिरछी नजर है कि गया जमाना हर मायने में आज के जमाने से बेहतर था। दूसरा अहंकार पर व्यंग्य है – कोई था तो हम थे, किसी का वक्त था तो हमारा था। यह भाव दिमाग में ठूंसे एक ढूंढ़ोगे दस मिलेंगे, दूर ढूंढ़ोगे पास मिलेंगे! कहीं भी, कहीं भी, बस मौका मिलना चाहिए। अपनी, अपने वक्त की, और अपने बच्चों की हेकड़ियों की पुड़ियाएं एक-दर-एक खोलना शुरू कर देंगे। इस बिरादर वालों की हर बात ‘‘मैं’’ या ‘‘मेरा’’ से शुरू होती है, ‘‘मैं’’ से विस्तार पाती है और ‘‘मैं’’ पर खत्म होती है।
क्यों सदा कोसते रहते रहते हैं कुछेक आज के लोगों और हालातों को? अतीत में लिपटे इनमें अधिसंख्य छिद्रान्वेशी हैं, जो प्रायः दूसरों में खोट ढूंढ़ते हैं। उपलब्ध साधनों, परिस्थितियों और परिवेश में सब गड़बड़ दिखते रहना है एक मनोवृŸिा है। ऐसों को अपनी छोटी सी दुनिया से परे कुछ भी दिखना, सूझना बंद हो जाता है। मन और दिल के दरवाजे सीलबंद कर चुके, दूसरों की प्रशंसा सुनने की इनकी क्षमता चुक गई होती है। कोई व्यक्ति कितनी खुली यानी प्रगतिशील सोच का है इसका एक पैमाना यह है कि उसे दूसरों की प्रशंसा कितना रास आती है।
सामने खड़ी समस्या या पशोपेश की परिस्थिति में आपके पास दो विकल्प रहते हैं, पहला समाधान तलाशने के लिए जूझें, इसके लिए मशक्कत करनी होगी। दूसरा विकल्प है, आंखें बंद कर ली जाएं, समस्या दिखेगी ही नहीं। घुटने टेकने वाले आश्वस्त रहते हैं कि कुछ करना उनके वश की नहीं है, और जब ऐसी धारणा बना ली जाती है तो व्यक्ति भविष्य की चुनौतियों के आगे कुछ करने में वास्तव में अक्षम हो जाता है। इतना ही नहीं, आपके बेहतर वर्तमान से भयभीत वे आपके अतीत के अप्रिय उदाहरण पेश करेंगे, आपको गिराने की दृष्टि से।
परमार्थ भाव के अपने एक परिजन नियमित रूप से रक्तदान करते थे। उनकी प्रशंसा कर रहा था तो एक गृहस्वामिनी को सहन न हुआ। तपाक से बोलीं, मेरे फलां मामाजी तो प्रत्येक सप्ताह रक्तदान करते थे। जिनका उन्होंने उल्लेख किया उन लम्पट, निहायत खुदगर्ज मामा को मैं बखूबी जानता था किंतु मैंने इतना ही कहा, ‘‘उनकी यह उदारता का कहीं और, किसी और से बखान नहीं करना।’’ मामा की प्रतिष्ठा पर तल्ख टिप्पणी उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। तुरंत प्रतिक्रिया आई, ‘‘क्यों न बताऊं, मैं तो सब को बताऊंगी।’’ उनके स्वर में आक्रोश, चेहरे पर तिलमिलाहट और हावभाव में अहंकार था। पत्नी को सर-आंखों पर रखने के लिए बदनाम किंतु मेरे शब्दों को यूं ही नहीं खारिज करने वाले उस महिला के धैर्यशील पति ने शुद्ध जिज्ञासावश मेरी सलाह का कारण जानना चाहा। मैंने बताया, पैसे के लालच में नशैड़ी अक्सर बार बार, छद्म नामों से रक्तदान करते हैं, चूंकि तीन महीना पूरा होने से पहले अगला रक्तदान स्वीकार नहीं किया जाता, ये नशैड़ी यह नहीं बताते कि उन्होंने हालिया रक्तदान किया है।
भरमार है उनकी जो नए स्कूल-काॅलेज, दफ्तर या शहर में बरसों-दशकों रचने-पचने के बाद भी पुरानी जगह के तारीफों के पुल बांधते नहीं अघाते, साथ ही मौजूदा माहौल से असंतुष्टि जताते उसे कोसते रहते हैं। उनसे पूछा जाए, पिछली जगह इतनी शानदार, खुशनुमां थी तो यहां क्यों चले आए? या अभी भी वहीं वापस क्यों नहीं लौट जाते? हकीकत है, वहां भी उनका यही दुखड़ा रहता था।
अतीत में जकड़ी सोच की मुश्किलें
व्यक्ति का मानसिक, बौद्धिक या सामाजिक स्तर जैसा भी हो, उसने जितना जिंदगी में देखा, जाना, समझा, पाया उससे बेहतर संभव ही न था, यह अतीत में उलझी तुच्छ सोच की विवशता है। उम्र की ढ़लान पर जब सुधार की गुंजाइश नहीं दिखती तो इस खुशफहमी में जीना शायद जरूरी है कि अध्यनकाल में उनके सरीखा कुशाग्र छात्र, और प्रौढ़ावस्था में उनकी टक्कर का कर्तव्यपरायण, साहसी और धांसू कोई अन्य नहीं रहा; उन जैसा व्यवहारकुशल, बुद्धिमान, दरियादिल, दूरदृष्टा और सर्वगुणसंपन्न शख्स कोई दूसरा कैसे हो सकता है? उम्र के इस मोड़ पर उसे अहसास जगे, यह खयाल उनके जेहन में घुस जाए कि उसने ताउम्र झक्क मारी है, तो उसके जीवन में रिक्तता पसर जाएगी, मन-चिŸा निराशा में डूब जाएगा, उनके पास जीने का सहारा नहीं बचेगा। वर्तमान वस्तुओं, उपभोग्य पदार्थों, नजारों में लुत्फ खत्म हो जाने की शिकायत करते संकुचित सोच के उम्रदारों के गले नहीं उतरता कि केला, जलेबी या अन्य खाद्य पदार्थ बेस्वाद नहीं हो गए हैं, बल्कि उनकी स्वाद ग्रहण करने की ग्रंथियां वक्त के साथ कमजोर पड़ रही हैं।
उनका यही नकारात्मक रवैया आज के टीवी सीरियलों, फिल्मों, गीतों, कलाकारों के प्रति झलकता है। उन्हें सुहाता है तो गए दौर की फिल्में, कथानक, पुराने गीत, गीतकार, जिनकी कंठखोल तारीफ करते वे नहीं थकते। वे नहीं समझना चाहते कि पहले भी बेसिरपैर की कचरा फिल्में खूब बनती थीं। ऐसे बेतुके गाने भी हुआ करते थे, ‘‘ओ चल मेंरे साथी, ओ मेरे हाथी …’’। यह दूसरी बात है कि हर सौ फिल्मों में से दो एक ही इतनी उम्दा रहीं कि वे दशकों तक लोकमानस में छाईं रहीं, उनकी तुलना आज की औसत फिल्म से करना उचित न होगा। जैसे वर्ष 2019 के अंत तक एकाध एकाध फिल्म श्रेष्ठ रहती है तो तवोज्जु उसे दें। आज की फिल्मों, नाटकों आदि की इकतरफा भत्र्सना से आप अपनी मानसिक सेहत ही खराब करेंगे और मौजूदा हालातों का आनंद उठाने में असमर्थ हो जाएंगे। पीने वाले अब भी हैं, मधुशालाएं भी हैं, बस किरदार नए आ गए हैं, ठैया भी बदल गए हैं।
अपने शहर, गांव या जन्मस्थान पर अभिमान होने में कोई बुराई नहीं, बल्कि यह अपना आत्मसम्मान बनाए रखने के लिए आवश्यक है। किंतु इनकी बड़ाई में सरोबार हो कर, दूसरों के शहर, गांव या जन्मस्थान को दोयम दर्जे का करार करना आपको खुशनुमां नहीं रखेगा, उनकी आलोचना-भत्र्सना का आपको अधिकार नहीं। आपके बच्चों द्वारा एकबारगी खेल या पढ़ाई में छक्के बनाने के गुणगान से, उन्हें ताड़ में चढ़ाने से उनका हित नहीं सधेगा; अहम है, उनके द्वारा वर्तमान में किए जाते कार्य, इन्हीं से उनकी बेहतरी की राह खुलेगी। क्या यह आप सुनिश्चित कर सकेंगे?
दूर का सुनहरा दृश्य समीप आ कर बालू का मैदान हो जाता है। पंजाबी कहावत भी है, जो घर नहीं देखा वही अच्छा है। जो अपने पास नहीं है उसकी ख्वाहिश नहीं पालें, जो है उसकी कद्र करें। मार्सेल पैगनाॅल के ने कहा, अधिसंख्य लोगों के दुख का कारण यह है कि उन्हें अतीत हमेशा वर्तमान से बेहतर दिखता है और भविष्य आंशकामय। जान लीजिए, आप जिस स्थिति, परिस्थिति या मुकाम में आज हैं वह बहुतेरों का स्वप्न है! जो आपके पास है उसकी कद्र करने की आदत बन जाएगी तो जिंदगी का सफर खुशनुमां बन जाएगा। जिंदगी की किताब के एक ही पन्ने पर अटके रहेंगे तो आगे नहीं बढ़ सकेंगे। अतीत की खुशफहमियों से बाहर आइए, ये आपके सुखमय वर्तमान में आड़े न आएं। और फिर, आपको अपना शेष जीवन भविष्य में गुजारना है, अतीत में नहीं। मानव जन्म आपको मौजूदा परिवेश में खिन्न, चिंताग्रस्त रहने के लिए नहीं मिला है।
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दैनिक वीर अर्जुन के बिंदास बोल स्तंभ में 5 मई 2019 को प्रकाशित
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