नौकरी न मिलना, प्रोमोशन में देरी, कोर्ट केस में हार, कीमती सामान की चोरी आदि से परेशान हो कर सदा के लिए निराशा में डूब जाना छोटी सोच वालों का काम है।
विदेश में रच-पच जाने, मोटी तनख्वाह, ढ़ेर रुपया या सामाजिक रुतबे से कुछ कार्य भले ही सरलता से सध जाएं, किंतु शख्सियत दमदार नहीं बन जाती। हमारी वास्तविक संपदा उच्च नैतिक बल और वे आत्मीय, निश्छल संबंध हैं जो हमारी जिंदगी में अंधकार नहीं आने देंगे।
लबालब बैंक बैलेंस, सर्वसुविधा संपन्न भव्य मकान, दुकान-जमीन, शानदार वाहन, ऊंची आय, घर-बाहर के लिए सेवादार जैसी चलायमान वस्तुएं व्यक्ति की वास्तविक संपदा नहीं हो सकतीं। अनेक व्यक्ति इन्हें परम लक्ष्य मान कर आजीवन भ्रम में, और जीवन की संध्या दुख में बिताने को अभिशप्त हैं। बेचारे नहीं जानते, कालांतर में ये वस्तुएं क्षत-विक्षत हो सकती हैं। मंदिरों-मस्जिदों के बाहर कटोरा थामे भीड़ में उन रजवाड़ों, धन्नासेठों, नामी-गिरामियों की संतानें भी हैं जिन्होंने बाह्य उपलब्धियों को सर्वस्व मान कर असल संपदा को नहीं जाना-समझा।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था, समस्त परिसंपत्तियां, प्रशस्तियां, अलंकरण आदि छिन जाने पर भी व्यक्ति के पास जो बचा रहता है यानी उसके हौसले, वही मनुष्य की असल संपदा है। हाडमांस के आवरण में ढ़का प्रभु से जोड़े रखने वाला उसका अंतःकरण ही उसके जीवन को अर्थ देता है। इस वास्तविक संपदा में वे सहयात्री भी शामिल हैं जो – जरूरी हो तो प्रेम, बल, छल कैसे भी – हमें सुमार्ग से नहीं डिगने देते।
हौसले ही जीवन को गति देते हैं: हौसले होंगे तभी जीवन में उत्साह, उल्लास और आशा का संचार रहेगा। इनके चलते समस्त खोया हुआ पुनः हासिल किया जा सकता है। दूसरी ओर, लौकिक लक्ष्यों से अभिप्रेरित होंगे तो छोटी दौड़ में उलझे रहेंगे कमध्यम जीवन के अहम मूल्य उपेक्षित रह जाएंगे। लौकिक समृद्धि और शक्ति का अप्रिय पक्ष यह है कि इनके किरदारों में अहंकार आ जाता है। वह आत्मीय जनों सहित उन्हें भी कमतर आंकता है जिनकी सदाशयताएं सिद्ध रहीं। अज्ञान के कारण वह दयनीय और अभिशप्त जीवन गुजारता है। अपने पास क्या, कितना है, इसे जानने के स्थान पर लौकिक सुख-समृद्धि के उपासक का ध्यान इसी पर रहता है कि दूसरों के पास क्या-क्या है जो स्वयं के पास नहीं है। यही चिंता उसे सताती है और उसके दुख का कारण बनती है।
पतझड़ में सड़क पर गिरे मुरझा गए पत्तों को देख कर, एकबारगी सुंदर पत्तों से लदे हरे-भरे वृक्ष का महत्व समझ आए या माता-पिता, परिजन के न रहने के पश्चात उनकी अतुल्य भूमिका का अहसास होना दूरदर्शिता नहीं है। जितना जल्द अपनी सही संपदा का बोध हो जाए और कृतज्ञता का भाव संजोना शुरू कर देंगे उसी अनुपात में शेष जीवन खुशनुमां हो जाएगा।
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इस आलेख का संक्षिप्त रूप 19 जनवरी 2024, शुक्रवार के दैनिक जागरण में असली संपदा शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
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