जी-तोड़ मेहनत करने वाले ही उत्सवी फिज़ाओं का लुत्फ उठा सकते हैं

सेलिब्रेशन का आनंद वही उठाता है, बल्कि जीवन के रंगों के लुत्फ उठाने का अधिकारी वही है जिसने मनोयोग से श्रम किया हो। ऐसा व्यक्ति अपने कार्यों के लिए दूसरों का मुंह नहीं ताकता। उसमें आत्मविश्वास  और हौसले भी गजब के होते हैं।

प्लेट से उठाए गए या हमारी हथेली में थमाए गए छिली मूंगफली के दानों में से दो-चार जमीन पर छितर जाएं तो थोड़ा मलाल लाजिमी है। दूसरे सीन है, आप स्वयं मूंगफली छिल रहे हैं। कुछ दाने इतने सख्त हैं कि उंगलियों से न टूटने पर हम दांतों का सहारा लेते हैं। वही दाने यदि जमीन पर गिर जाएं तो मलाल ज्यादा ही होता है। एक-दर-एक स्वयं छिले दानों की दूसरी सच्चाई है कि इन्हें हम अधिक तृप्ति से खाते हैं। पोषण विज्ञानी बताते हैं, सेवन की गई खाद्य सामग्री का सेवन अनुकूल मुद्रा में किया जाए तो शरीर कण-कण को भलीभांति अवशोषित करता, और भरपूर ऊर्जा प्रदान करता है।

बगैर किए-धरे की कमाई गवां दी जाती है

दुनिया में जो भी हासिल करने योग्य है उसकी दो खूबियां होती हैं। पहला, उसे पाने के लिए धन की आवश्यकता नहीं होगी, या बरई नाम होगी। दूसरा – यह अनायास नहीं मिलती, इन्हें अथक, सतत श्रम से स्वयं अर्जित करना होता है। जो बिना किए-धरे झोले में टपक जाए, वह नहीं टिकेगा, टिक भी जाए तो उसका उपयोग भले काम में होना मुश्किल होता है। ईजी कम, ईजी गो। सयाने कहते हैं, इसकी तासीर सही नहीं रहती। लाटरी, जुआ या सट्टे से मिली रकम से आटा-दाल खरीदने या बालक की फीस चुकाने की मिसालें नहीं मिलतीं, यह रकम उसी कोटि के कृत्य में या फालतू चीजों में डूब जाती है, और फिर वही तंगहाली। ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के एक शोध से पाया गया कि विरासत से मिली मोटी कमाई को एक तिहाई लोगों ने दो साल के भीतर उड़ा दिया और पहले की फटीचरी वाली स्थिति में लौट आए। जुगाड़ से मिली नौकरी या कारोबार में झटके से मिले बड़ा ऑर्डर का भी यही आलम है। उपरी आमदनी वालों के परिवारजनों को देखें। संतानें प्रायः बिगड़ैल, मेहनत से जी चुराने वाली, और महिलाएं नजरें आसमान चढ़ाए, अनाप-शनाप खर्चने वाली मिलेंगी।

किसी के खाते से नहीं जी सकते
संपन्नता, प्रसिद्धि, ज्ञान या अध्यात्म की ऊंचाइयों तक वे पहुंचे जिनमें जागरूकता और दूरदृष्टि के साथ धैर्य, और जुझारूपन था, जिन्होंने कदम-दर-कदम कुदाली से अपनी राह स्वयं तैयार की। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्होंने मुफ्तकोरी का रास्ता नहीं चुना। इसी मनोवृत्ति के कारण वे सिर उठा कर जिए। वक्त की चाल देखें। उन्हीं व्यक्तियों या घरानों की अनेक संतानों की फटीचरी की नौबत इसलिए आई चूंकि उन्हें वह सब बना-बनाया मिल गया था जिसे पाने के लिए सभी संघर्षरत रहते हैं। वे इस भ्रांति में जीने लगे थे कि हमारी पूछ इसलिए नहीं है कि हम खानदान का बड़ा नाम है, हम खूबसूरत हैं, स्मार्ट हैं, ऊंचे ओहदे पर हैं, तमाम सुख-सुविधाओं से संपन्न हैं बल्कि हमारी बात ही अलहदा है। इस भ्रांति ने उन्हें अकर्मण्य बना डाला और उनकी दुर्गत शुरू हुई। जानकार बताते हैं, उनमें से कुछ मंदिरों-मस्जिदों के बाहर कटोरा थामे मिल जाते हैं।

समृद्धि, सुख, तुष्टि, प्रसिद्धि और शांति उस खास सोच की स्वाभाविक परिणति है जिसमें अकर्मण्यता और स्वार्थ भाव के लिए स्थान नहीं है। हम सर्वोपरि हैं, यह सोच व्यक्ति की प्रगति को अवरुद्ध कर देती है, यह विचार प्राकृतिक विधान के प्रतिकूल भी है। पालने में डोलती अपनी बिटिया के लिए ईश्वर से प्रार्थना स्वरूप एक नामी कवि की चंद पंक्तियां हैं, ‘‘वह सुंदर तो हो लेकिन इतना नहीं कि राहगीरों की निगाहें उस पर ठिठक जाएं।’’ कारण – ऐसा व्यक्ति भ्रांति पाल लेता है कि अतिसुंदर होना स्वयं में बड़ी उपलब्धि है जिसके बाद जीवन में करने धरने को कुछ शेष बचा नहीं रह जाता।

वही प्यासा पानी का भरपूर लुत्फ वही लेता है जो कड़ी गर्मी में श्रम से पसीना बहा कर आया है। सेलिब्रेश का आनंद भी वही थका मांदा उठाता है जो दिन भर कार्य में व्यस्त रहा हो। जिसने अपना रास्ता स्वयं निर्मित किया, स्व-अर्जित जिसे रास आ गया वस्तु करना जिसने सीख लिया वह प्रसन्नचित्त औत्मविश्वासी होगा। वह मन-तन से स्वस्थ रहता, और सही मायनों में जीता है। यह समझ लेंगे तो कर्मठ रहना व्यक्ति का स्वभाव बन जाएगा और उन मानसिक विकृतियों से ग्रस्त रहने की संभावना घट जाएगी जिस ओर अधिसंख्य जन अग्रसर हैं।

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इस आलेख का संक्षिप्त प्रारूप 2 दिसंबर 2024, सोमवार के नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री कॉलम में ‘मेहनत से मिली चीज ही देगी असली खुशी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण में आलेख का लिंकः  https://navbharattimes.indiatimes.com/speakingtree/editorial/the-pleasure-of-rest-after-hard-work-is-the-greatest-and-most-special/articleshow/115896161.cms

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