झूठमूठ खांसते, चतुर्वेदीजी बनने चले त्रिवेदीजी रह गए द्विवेदीजी

Blunt

राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट ! मौके का फायदा उठा कर त्रिवेदीजी चतुर्वेदीजी बनने चले थे। किंतु हालात ने यों पटका कि वे द्विवेदी बन कर रह गए।

 

लोगबाग गली-मोहल्ले, सामुदायिक स्थान, पार्क या कार्यस्थल में, संक्षेप में कहें तो यत्र, तत्र सर्वत्र हर खांसते-खंखारते से भयभीत हो कर वे यूं बिदक रहे हैं जैसे भूत उन्हीं के इंतजार में घात लगाए बैठा हो, मौका मिलते ही जकड़ लेगा और काम तमाम। खांसने वाला बुजुर्ग इंसान नहीं, प्रत्यक्ष मौत का प्रतिरूप नजर आता है। बाज लोग तो खांसी के किस्से सुन कर ही दशहत में आ रहे हैं, कहते हैं, “बस भी करो”। पिछले हफ्ते आयारामजी के करीब से गुजरते एक दुबले-पतले दुर्जन ने मास्क हठा कर छींक क्या दिया कि बवाल मच गया। पहले वे तीखी झल्लाहट से चीखे, ‘‘मेरे कत्ल की साजिश!’’ फिर पूरी ताकत से उस बेचारे दुबले गरीब का गला हलाल किए जाते बकरे की तरह दबोचने लगे। भला हो आननफानन में मौके पर दो चार आवारा लड़कों ने सीन देखा और आयारामजी के हाथ भींच कर बेचारे पिटने वाले को मौत से बचा डाला। उन्हें वीर चक्र देने की सुनने में आ रही है।

बहुत से जागरूकों की भांति जबलपुर के उम्रदार शातीर त्रिवेदीजी बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूकने का इतिहास था। उनकी सुविचारित मान्यता थी, जो ऐसा न कर सके उस मूर्ख को मृत्युलोक में रहने का हक नहीं। कोरोना के खौफ में बढ़िया, घटिया मास्क और सेनिटाइज़र बनाने-बेचने वालों की पौ-बारह देख कर वे मन मसोजे दुखी थे, ‘‘काश, कोरोनामय फिजाओं से लाभ उठाने का उन्हें भी एक अदद मौका नसीब होता!’’ केमिस्ट की दुकान, डिपार्टमेंट स्टोर, नाई, मोची, सभी के पास मास्क और सेनिटाइज़र खरीदारों की लंबी लंबी लाइनें दिखीं तो पहले वे चैंके, फिर उनकी “हाय हम न हुए” वाली व्यथा असह्य हो गई।

जहां चाह वहां राह! एक खयाल कौंधा और उनके ज्ञानचक्षु खुल गए। अगले दिन उन्हें बिलासपुर जाना पड़ रहा था, रिजर्वेशन मिलने का सवाल ही नहीं था। किंतु खुदा की इनायत बरसती दिख रही थी।

त्रिवेदीजी ने ट्रेन के खचाखच भरे साधारण डिब्बे में एक सीट पर सामान ठंसा दिया। फिर अपनी प्लानिंग के मुताबिक टायलेट गए। लौटे तो जोरों से खांसते-खंखारते। आनन फानन में आसपास के सभी सवारियां भय से तितर बितर हो गईं, बचे तो केवल एकछत्र त्रिवेदीजी। उन्होंने जंग जीत ली थी। वल्र्ड कप विजेता की मुद्रा में टांगे फैला कर सुकून से पसर गए। थके तो थे ही, कब आंख लग गई पता ही नहीं चला।

तड़के जाग खुली तो सामने प्लेटफार्म था। जिज्ञासा उठी, कौन सा स्टेशन होगा? पता चला जबलपुर है तो चकराए। हतप्रभ वे वेंडर से बोले, जबलपुर से तो यह ट्रेन कल रात चली थी।

जवाब मिला, ‘‘चली तो वह ट्रेन थी जिसे जाना था। इस डिब्बे में रात को एक कोरोना का मरीज चढ़ गया था। इसलिए इस डब्बे को यहीं काट दिया गया था’’। त्रिवेदीजी हाथ मलते रह गए।

लेखकः हरीश बड़थ्वाल

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