संकल्प नेक हों तो रुहानी ताकतें भी हाथ बंटाती हैं

समाज

मनोवैज्ञानिक बताते हैं, मंसूबे नेक हों, इच्छा ज्वलंत, दिल साफ, और हौसले बुलंद, तो मनचाहा हासिल हो जाता है। वह कार्य भी संपन्न हो जाता है जो सर्वथा अकल्पित, अप्रत्याशित था, तमाम अटकलों से जुदा। और दुनिया भौंचक्की रह जाती है।

गए मंगलवार 6 अगस्त को संसद में जो हुआ वह अजूबा से कम न था। देश-विदेश के नेताओं, कूटीनीतिज्ञों, मीडियाकर्मियों, राजनीतिक टीकाकारों, जासूसों, भविष्यवक्ताओं, किसी को भनक न लगी कि जम्मू-कश्मीर अलबेला अनुच्छेद 370 और 25ए एक झटके में दरकिनार, निष्प्रभावी कर दिए जाएंगे। इस ऐतिहासिक प्रकरण से एकबार पुनः पुष्टि होती है कि करिश्मों को खारिज नहीं किया जा सकता।

अनुच्छेद 370 की छाया जम्मू-कश्मीर के जनजीवन में किस कदर शुमार थी इसकी झलक मुझे पिछले पंद्रह साल में दो बार वहां जाने पर दिखी। पहली बार, जब वैष्णो देवी सपरिवार गया था। वापसी में जम्मू से ट्रेन छूटने में वक्त था तो सोचा बाहर का जायजा लिया जाए। स्टेशन परिसर से सटा आईटीडीसी यानी भारत सरकार की शीर्ष पर्यटन संस्था का कार्यालय था। वहां चस्पा करीब तीन गुणा तीन फुट के भारतीय नक्शे को देखा तो दंग रह गया। बाहरी राज्य से आए हर किसी संदेह वाजिब था, भारत का ही नक्शा है या इस अंचल के सभी देशों का। वह यों कि पंजाब-कश्मीर सीमा पार, उŸार से दक्षिण तक पाकिस्तान के कम से कम 25-30 शहरों के नाम उसमें दर्शाए गए थे। देश के किसी राज्य के टूरिस्ट नक्शे में पड़ोसी देश के शहर कैसे दिखा सकते हैं? असंभव है कि संबद्ध अधिकारियों को इस अवैधता की जानकारी न हो। मायने साफ थे। यह एक सुनियोजित सोच, किसी लिखित या अलिखित आदेश के तहत था, शायद अनुच्छेद 370 के तहत मान्य हो। दूसरी बार, श्रीनगर में कुछेक को छोड़ कर सभी दुकानों, होटलों में टंगे बोर्ड उर्दू में थे। क्या आप जानते हैं, श्रीनगर में, भारतीय सूचना एवं प्रसारण के रेडियो स्टेशन का नाम आकाशवाणी श्रीनगर नहीं, रेडियो कश्मीर है – यह एकमात्र केंद्र है जिसके नाम में आकाशवाणी नहीं जुड़ा है। भारत सरकार के खर्चे पर जो रेल व्यवस्था वहां कायम की गई है उसका नाम ‘‘भारतीय रेल’’ नहीं, ‘‘कशमीर रेलवेज़’’ है। जम्मू-कश्मीर में स्थित केंद्रीय सरकार के अन्य महकमों में भी ऐसा है। दिल्ली के अपने एक कश्मीरी मूल के साथी जब-जब एक केस के मामले में श्रीनगर कोर्ट में पेश होते थे, उनके वकील जज को हर बार बताते थे, ‘‘जनाब हिन्दुस्तान मुल्क से आए हैं।’’

कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली से श्रीनगर में आयोजित एक सम्मेलन में भाग लेने गए एक अधिकारी ने बताया कि सम्मेलन कक्ष में एक ओर विदेशी प्रतिनिधियों का स्थान था, दूसरी ओर स्थानीय संभागियों का। विदेशी अनुभाग में ही अलग-अलग देशों के नाम की तख्तियां लगीं थीं, एक जगह लिखा था, ‘‘डेलीगेट्स फ्राॅम इंडिया’’। यानी भारतीय प्रतिनिधियों को विदेशियों की श्रेणी में रखा गया था।

‘‘देश चाहे भाड़ में जाए’’, यह भावना किन हालातों में पनपती है? देश के एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य में जनमानस की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का रिस्क नहीं लेने और समूचे देश में वोट बैंक की बरकरारी से अलहदा कुछ ऐसा था कि अनुच्छेद 370 हटाने का साहस क्रमिक सरकारों नहीं कर पाईं। इस विषय के अनेक पहलुओं पर पिछले वर्षों सोशल मीडिया में कई बार चर्चा हो चुकी है, अभी भी यदाकदा चलती भी रहती है। संक्षेप में इतना ही कि जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुछ किंचित आका परिवारों के तार भावनात्मक तौर पर जुड़े हों और जिनका वतन की माटी से प्रेम वास्तविक नहीं हो तो व्यापक जनहित बलिहारी हो जाते हैं।

देर आयद, दुरस्त आयद

अनुच्छेद 370 के जरिए जम्मू-कश्मीर की अलहदा अहमियत बरकारार रखने की आड़ में देशविरोधी, अलगाववादी व आतंकी गतिविधियों को भरपूर संरक्षण प्राप्त था। भारत सरकार की ओर से वहां तमाम सुविधाएं उदारता से प्रदान किए जाने के बावजूद वहां के नेताओं का भारतविरोधी जहर उगलना कभी नहीं थमा चूंकि उन्हें दशकों से लचर नेतृत्व का पता था, वे मान कर चलते थे कि उनके वर्चस्व में आंच नहीं आने वाली है; उनमें दूरदृष्टि न थी कि दिन एक से नहीं रहते और कर्मों का फल मिलता ही है। यों बीजेपी (जनसंध) के आला नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी आदि सदा से अनुच्छेद 370 को हटाने का संकल्प डंके की चोट से ऐलान करते रहे हैं, उनके एजेंडा में यह मुद्दा अहम रहा है। अब हालात यों बने, और अलौकिक शक्तियों ने इतना साथ दिया कि चुटकी में यह दुष्कर कार्य सुकर हो गया; जम्मू-कश्मीर का डगमगाता स्टैटस पटरी पर बैठ गया और देर ही सही, देश धन्य हुआ।

जैसा ऊपर लिखा है, इस अजूबे में कुदरत या प्रभु ने जो सहयोग दिया उसे खारिज नहीं कर सकते। प्रभु अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देने के लिए ऐसे समर्पित शख्सों को माध्यम बनाते हैं जो इसके लिए कमर कसे हैं, फिर उनके मिशन में अबूझ तौरतरीकों से स्वयं हाथ बंटाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में देवत्व का अंश विद्यमान रहता है, इसी कारण उसे अथाह शक्ति और ऊर्जा का पुंज कहा जाता है। इस ईश्वरीय तत्व के चलते ही वे परमशक्ति से तादात्म्य बनाए रखने में प्रयासरत रहते हैं। नरेंद्र मोदी ने कुछ चुनाव के बाद कुछ दिन केदारनाथ की गुफा में यूंही नहीं बिताए। ऊहापोह, भागमभाग, व्यस्तता और अस्तव्यस्तता के मौजूदा दौर में जब कुछ घंटे गुजारना अधिसंख्यों के लिए भारी पड़ता है, साधना में नितांत अकेला कुछ दिन रहना करोड़ों, अरबों में किसी एक अतिमानव के बस की ही हो सकती है। बालासाहब ठाकरे ने 6 जून 2002 को अनायास नहीं कहा था कि नरेंद्र मोदी ही भारत का भविष्य हैं। छोटी सोच वाले जो ऐसे युगपुरुष के आगे पानी नहीं भर सकते, उसके खिलाफ जहर उगलने के अलावा क्या कर सकते हैं? किसी शख्सियत का मूल्यांकन करने से पूर्व उसके मानसिक-भावनात्मक धरातल के समकक्ष पहुंचना पड़ता है।

आगे की कहानी

खिसियाती बिल्ली खंभा भर नोच सकती है। जम्मू-कश्मीर को ताउम्र अपनी जागीर समझने वालों को पावों तले जमीन खिसकने के बाद हकीकत से समझौता करने में वक्त लगना लाजिमी होगा। नई व्यवस्था को डिगाने की वे छुटपुट कोशिशें करेंगे, पकड़ में भी आएंगे, इनकी हरकतों पर पैनी नजर रखने में कोई चूक नहीं छोड़नी होगी। इसी के साथ, पत्थरबाजी और तोड़फोड़ ही जिन युवाओं को जीने का मकसद पढ़ा-सिखा दिया गया था, उनका सही तरीकों से निर्देशन और पुनर्वास करना एक बीहड़ चुनौती होगी। स्मरण रहे, अवांछित तत्वों को काबू करने और जीत के बाद सुशासन के लिए अलग-अलग कौशलों की जरूरत होती है। हमारी सेनाओं और खुफियातंत्र में जिस कोटि की स्तरीय योग्यताएं और निष्ठाएं हैं, उसी स्तर के हुनर राज्य के पुनर्निर्माण में अपनाने होंगे।

.. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. ..

दैनिक वीर अर्जुन, नई दिल्ली के बिंदास बोल स्तंभ में 11 अगस्त 2018 को प्रकाशित।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top